Saturday 31 October 2015

आशीर्वाद - Blessings


BLESSINGS (ASHIRWAD)


  • ये बात उस समय की है जब मैं दसवीं कक्षा में पढ़ा करता था । हमारे गाँव के रघु भैया हम बच्चों को बहुत प्रिय थे, उनका मुम्बई में दवाओँ का कारोबार था और हर 6-8 महीने में जब भी गाँव आते हमारे लिए चॉकलेट लाते थे और शाम को हमें किस्से सुनाते थे ।
  • आज सुबह ही रघु भैया मुम्बई से आये थे और शाम को गाँव के चौक में हमें मिलने वाले थे । ये गाँव की रोज की दिनचर्या थी । फुरसत के क्षणों में सब गाँव के चौक में ठंडी शाम का आनंद उठाते थे।
  • हम सब भी बहुत उत्सुक थे उनसे मिलने और उनकी बाते सुनने को ।
  • शाम को करीब 5 बजे रघु भैया आये, हम सबको हमारा हालचाल पूछा और चॉकलेट दी । फिर चौक में बैठे बड़े बुजुर्गों से आशीर्वाद लिया और उनसे बातें करने लगे ।
  • उत्सुकतावश पिंटू उठकर गया और रघु भैया को हाथ पकड़ कर खींचता हुआ सा हमारी मण्डली की और ले आया ।
  • "क्या रघु भैया, हम 7 महीने से तरस रहे है और आप वहां दादाजी के पास जा के बैठ गए। हमें अपनी कहानी सुनाओ ना, आप इतने बड़े आदमी कैसे बने" दीपू ने अति उत्साह दिखाया ।
  • "अच्छा सुनो, आज मैं आपको अपनी ही कहानी सुनाता हूं" रघु भैया ने एक लंबी सांस भरी और बोले, "बच्चों, ये सब बड़ों का ही आशीर्वाद है, तुम भी हमेशा उनके कहे अनुसार चलना, देखना तुम कहीं भी नहीं अटकोगे। कोई भी समस्या हो या कुछ नया करना चाहो तो उनसे राय जरूर लेना । वो तुम्हे सही राह दिखाएंगे ।" बोलते बोलते रघु भैया सांस लेने के लिए रुके ।
  • "मैंने ये सब नहीं समझा था, पिताजी की बातें मुझे पुराने ख़यालात की लगती थी । वे मुझे गांव के पास वाले शहर में कोई व्यापार शुरू करने के लिए बोल रहे थे लेकिन मेरे दिलो दिमाग में मुम्बई नगरी बसी हुई थी ।
  • वे मुझे अपने से दूर नहीं भेजना चाहते थे, उनका स्नेह मुझे उस वक्त स्वार्थ जैसा दिखाई देता था । एक रोज इन्ही बातों के चलते मेरे उनके बीच काफी कहा सुनी हो गई और माँ के लाख समझाने पर भी मैं नहीं माना और अगले दिन मुम्बई की ट्रेन पकड़ ली ।
  • वहां अपने आसपास के गाँवों के काफी लोग है तो मेरे रहने खाने की व्यवस्था हो गयी और अपने पास वाले गांव के लालू चाचा ने मुझे काम भी दिलवा दिया ।
  • लेकिन वो काम मुझे रास नहीं आया, मुझे बहुत जल्दी बहुत सारे पैसे कमाने थे इस चक्कर में मैं एक चिटफण्ड वाली कंपनी के बहकावे में आ गया जिनका दावा था की वो एक महीने में पैसा डेढ़ गुना कर देते हैं। मैंने इधर उधर से कर्जा लेकर दो लाख रुपये उसमे लगा दिए। और 15 दिन बाद वो कंपनी कहां गयी किसी को पता नहीं चला।" कहते कहते रघु भैया के चेहरे पर अफ़सोस के भाव नजर आये ।
  • "मैं टूट गया, 8-10 दिनों मैं मुझे लगने लगा जैसे अब मेरा भविष्य पूर्णतः अँधेरे में डूब चूका है । पिताजी से कह नहीं सकता था क्योंकि उनसे तो मैं झगड़ा कर के गया था और कई महीनों तक बात भी नहीं की थी ।
  • इसी उलझनों में घिरा एक दिन जब शाम को घर आया तो देखा लालू चाचा के साथ पिताजी बैठे थे । मैं हक्काबक्का हो गया ।
  • पिताजी उठकर आये और मुझे गले से लगाकर बोले, रघु, इतनी तकलीफ में है और बताया भी नहीं । इतना भी क्या गुस्सा बेटा ।
  • पिताजी के उस स्पर्श ने मेरे अंदर की घुटन को आजाद कर दिया था और मैं उस दिन पिताजी के कंधे पर सर रख कर जी भर कर रोया।" बोलते बोलते रघु भैया की आँखे सचमुच भर आई ।
  • "पिताजी ने कहा रो मत बेटा, मैं हुं ना, सब ठीक हो जायेगा, कल तेरे जितने भी कर्ज लिए हुए है वो हम चूका देंगे, तेरे लालू चाचा ने बताया की यहां दवाओँ की दूकान अच्छी चल सकती है अतः अगर तुम मेरा कहा मानो तो हम यहां एक दवा की दूकान शुरू कर देंगे । थोड़े दिनों में ईश्वर की कृपा रही तो सब फिर से व्यवस्थित हो जाएगा । तेरी माँ और मेरा आशीर्वाद भी तेरे साथ है।
  • मैं उस वक्त एकदम चेतनाशून्य हो चूका था बच्चों, पिताजी क्या बोल रहे थे कुछ पता नहीं था । अगले दिन उन्होंने सच में मेरे सारे कर्ज चुकवा दिए, फिर अगले कुछ दिनों में किराये की एक दूकान भी ले कर उसमे माल भरवा दिया ।
  • कुछ दिन रुक कर पिताजी वापस गाँव आ गए थे । जाते जाते उन्होंने कहा था रघु बेटा, कोई भी चीज की और जरुरत हो तो बता देना, और मन लगाकर काम करना, मेरा आशीर्वाद हमेशा तेरे साथ रहेगा ।
  • पिताजी जितने दिन रहे थे उतने दिनों में मेरी हिम्मत नहीं हुयी उनसे पूछने की कि उनके पास इतने पैसे कहाँ से आये ।
  • ये बात जोर देकर जब मैंने लालू चाचा से पूछी तो उन्होंने बताया था कि पास वाले शहर में पिताजी ने मेरे लिए एक दूकान ले रखी थी वही बेचकर उन्होंने मुझे यहाँ पर काम करवा के दिया था ।
  • और तो और जब मैं घर छोड़कर चला गया था तब पिताजी ने पहले ही फ़ोन करके लालू चाचा से कह दिया था कि मेरे रहने खाने और काम की कोई व्यवस्था करवा देवे । जबकि मुझे लगता था की ये सब मेरी काबिलियत थी ।
  • तब मैंने प्रण कर लिया था कि पिताजी के सपने को साकार करुंगा, और आज देखलो, उनके आशीर्वाद से सब अच्छा ही अच्छा है।
  • इसलिए बच्चों हमेशा बड़ो का आदर करना, उनका कहना मानना, और आशीर्वाद हमेशा लेते रहना।"
  • हम सब सांस रोके रघु भैया की बातें सुन रहे थे और मन ही मन सोच रहे थे कि बड़ो के आशीर्वाद में बड़ी शक्ति है ।
  • ....शिव शर्मा की कलम से....


Friday 30 October 2015

मौत का भय - The Fear of Death



मौत का भय - The Fear of Death

जयपुर रेलवे स्टेशन पर बैठा मैं अपनी गाड़ी का इंतज़ार कर रहा था । गाड़ी आने में अभी वक्त था इसलिए मैने समय काटने के इरादे से एक अखबार ख़रीदा और एक खाली बेंच पर आके बैठ गया ।

तभी एक करीब 11-12 साल का बच्चा आया और बोला "बाबूजी बूटों को पॉलिस करदूँ, शीशे की तरह चमका दूंगा"।

जूतों पर धुल जमी थी सो मैंने कहा "करदो, कितने पैसे लोगे"।

"बस बाबूजी पांच रुपये"

"ठीक है करदो" सुनते ही उसका चेहरा चमक उठा और उत्साह के साथ बैठ कर वो पॉलिश करने में तल्लीन हो गया। मैंने फिर अखबार में आँखे गड़ा दी ।

वही रोज वाली ख़बरें ही थी । हत्या, डकैती, जायदाद को लेकर भाइयों के झगड़े । प्रेमी युगल घर से भागा । इत्यादि इत्यादि । मैंने बोर होकर अखबार एक और रखा और उस लड़के से मुखातिब हुआ । वो जूतों को पॉलिश कर चूका था और रेशमी कपड़े से घिस कर उन्हें चमका रहा था ।

"इस उम्र में तुम काम कर रहे हो, स्कूल नहीं जाते? तुम्हारे पिताजी तुम्हे रोकते नहीं?" मैंने यूँ ही पूछ लिया।


"स्कूल तो जाता हूँ बाबूजी, शाम को काम करके माँ को थोड़ा सहारा दे देता हूँ, और पिताजी होंगे तो रोकेंगे ना बाबूजी, पिछले साल सड़क दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गयी थी।" कहते कहते उसकी आँखे थोड़ी नम हो गयी थी ।

"ओह, क्षमा करना बच्चे, मैंने अनजाने में तुम्हारा दिल दुखा दिया।" मैंने उसके पैसे उसे देते हुए कहा ।

"कोई बात नहीं बाबूजी, ये तो नियति का खेल है, जो आया है उसे एक ना एक दिन तो किसी बहाने से ईश्वर के पास जाना ही है । अमर कोई नहीं है । मौत सबको आनी है बाबूजी और आती है । पिताजी चले गए, मैं भी चला जाऊंगा एक दिन, मगर जब तक हूँ तब तक तो मैं अपने और अपने परिवार के लिए जो कर सकता हूँ वो करूँ।  ठीक है बाबूजी, आपकी ट्रेन आ रही है। नमस्ते"

एक छोटे से बच्चे ने कितनी बड़ी बात सहजता से कह डाली थी । "मौत सबको आनी है" । सत्य है । मौत से कौन बचा है, बड़े बड़े सुरमा चले गए जिनकी एक हुंकार से जमाना डरा करता था ।

हम सब जानते है इसका सामना एक दिन हमें भी करना है । मगर इस सच्चाई को स्वीकार करने की बजाय हम इस से भागना चाहते हैं, बचना चाहते हैं। देखा जाए तो मौत के भय से हम मर मर के जी रहे हैं। डरते है पता नहीं कब मौत आ जाए। इसी कशमकश में जिंदगी निकल जाती है और हम हाथ मलते रह जाते हैं।

भाई मौत तो आएगी तब आएगी,  जब वो आएगी तब देखा जाएगा । अभी तो हम में जीवन है, अभी जो पल है हाथ में उनको जी भर कर जिओ, उनका भरपूर आनंद उठाओ । खुद खुश रहो औरों में खुशियां बांटो, फिर देखो मौत का भय हमसे कोसों दूर भाग जाएगा । चारों और जीवन ही जीवन नजर आएगा ।

आज बस इतना ही । आपसे कल फिर मिलने के वादे के साथ विदा लेता हूँ। जय हिन्द

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....शिव शर्मा की कलम से....









आपको मेरी ये रचना कैसी लगी दोस्तों । मैं आपको भी आमंत्रित करता हुं कि अगर आपके पास भी कोई आपकी अपनी स्वरचित कहानी, कविता, ग़ज़ल या निजी अनुभवों पर आधारित रचनायें हो तो हमें भेजें । हम उसे हमारे इस पेज पर सहर्ष प्रकाशित करेंगे ।.  Email : onlineprds@gmail.com

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Thursday 29 October 2015

पसंदीदा कार्यक्रम - The favourite TV Program

पसंदीदा कार्यक्रम

शनिवार का दिन था । मैं अपने दफ्तर में बैठा रोजमर्रा के काम सलटा रहा था तभी फ़ोन पर "मेरे देश की धरती" गाने की धुन बजी, जो मैंने अपने फोन की रिंगटोन सैट कर रखी थी । परदेस में देशप्रेम वाले गाने की धुन भी अच्छी लगती है ना ।

मेरे परिचित मयूर भाई (काल्पनिक नाम) का फ़ोन था । भारत में राजस्थान के रहिवासी मयूर भाई के बारे में प्रसिद्द था कि वो बहुत ही "पकाऊ" आदमी है, शुरू हो जाता है तो बिना ब्रेक की गाड़ी की तरह रुकता ही नहीं है । फिर भी मेरी वीरता देखिये, मैंने "साहस" करके फ़ोन उठा लिया ।

"हैलो शिव भाई, कैसे हो"उधर से आवाज आई।

"अच्छा हूं मयूर भाई प्रभु की कृपा से, आप बताइये, कैसे हैं और आज हमारी याद कैसे आई" मैंने जवाब दिया ।

"अजी याद तो रोज ही करते हैं बस फ़ोन वगैरह नहीं कर पाते, काम बहुत रहता है"

"कोई बात नहीं मयूर भाई बस याद करते रहें यही काफी है, बताइये क्या सेवा करूँ"

"सेवा कैसी शिव भाई, आज शनिवार था और हमारा टेलीविजन दुर्भाग्यवश ख़राब हो गया है, आपने वो भारतीय चेन्नल्स वाला केबल कनेक्शन ले रखा है ना? ये ही पूछना था ।"

"जी हां" मैंने बताया ।

"उसमें सोनी टी वी भी आता है ना?"

मेरी इच्छा हुयी दीवार से सर फोडलुं, अब हिंदी चैनल वाला कनेक्शन है तो सोनी टी वी तो प्रायः सभी केबल कंपनियां अपनी सूचि में रखती है। फिर भी मैंने जवाब दिया "जी हां मयूर भाई, सोनी भी आता है।"

"अरे वाह शिव भाई, आपने तो निहाल कर दिया, मुझे वो बच्चों के गाने वाला जो इंडियन आइडल नाम का प्रोग्राम आता है, बहुत अच्छा लगता है"।

"हां जी, वो तो वाकई अच्छा आता है, हम भी देखते हैं"

"वही तो, अब अगर आपको आपत्ति ना हो तो मैं शाम को आपके घर आ जाऊं, हमारा टी वी ख़राब है और मैं उसे देखे बिना छोड़ना नहीं चाहता।"

"लेकिन वो कार्यक्रम तो दस बजे आता है मयूर भाई । फिर चलता भी 1 घंटा है, आपको देर नहीं हो जायेगी वापस जाते जाते?" मैंने बचने की कोशिश करने वाला सवाल किया ।

"देर काहे की शिव भाई, कल तो सन्डे है, फुल्ल आराम का दिन, आप वो चिंता छोड़िये, तो मैं कल आ रहा हु ठीक पौने दस बजे"।

उन्होंने अपना निर्णय स्वतः ही सुना दिया तो औपचारिकतावश मुझे हां तो कहनी ही थी।

फ़ोन काट कर जल्दी जल्दी काम ख़त्म करके मैं करीब 7.30 बजे घर आया । और मेरे साथ उसी घर में रहने वाले मेरे सहकर्मी विनोद को इस बारे में बताया । उसने भी माथा पकड़ लिया और कहा "अब तो देख लिया प्रोग्राम, वो मयूर भाई है भैया । अब तो आज उसी का प्रोग्राम देखो"

मैं मुस्कुराकर तरोताजा होने अपने कमरे में चला गया । फिर कुछ देर बाद हमने खाना खाया और टी वी देखने बैठ गए । ये हमारी रोज की दिनचर्या है, शाम को दफ्तर से आने के बाद भोजनोपरांत कुछ देर टेलीविजन में कोई पसंदीदा सीरियल और समाचार वगैरह देखना ।

ठीक पौने दस बजे मयूर भाई आ गए । समय की उनकी पाबंदता वाकई तारीफ के काबिल निकली । हेलो हाय के आदान प्रदान के बाद वो सोफे पर जम गए । कुछ देर बाद इंडियन आइडल शुरू हो गया..... और मयूर भाई भी।

"मैं ये प्रोग्राम शुरू से देखता आ रहा हूं विनोद भाई, एक भी दिन मिस नहीं किया, आज हमारा टी वी ख़राब हो गया तो शिव भाई ने कहा हमारे यहां देख लेना"।

"हां तो क्या फर्क है मयूर भाई, ये भी तो आपका ही घर है" विनोद ने व्यवहार सुलभ जवाब देकर बात को टालने की "असफल" कोशिश की।

वो विनोद को बता रहे थे और मैं आश्चर्य चकित था कि उनको न्योता मैंने दिया था? तब तक एक लड़की गाना गा चुकी थी । बहुत सूंदर गाया था उसने मगर हमारा आधा ध्यान तो मयूर भाई ने अपनी और आकर्षित कर रखा था। खैर वो हमारे मेहमान थे और मेहमान तो......।

फिर राजस्थान का एक जूनियर मंच पर आया, उसने जैसे ही " ठरकी छोकरो"  गाना शुरू किया उधर मयूर भाई,

" मैं जानता था शिव भाई आज ये यही गाना गाने वाला है, पिछले हफ्ते इसने वो वाला गाना गाया था जो बड़े बड़े गायकों के लिए गाना मुश्किल है, उसके पिछली बार तो कितना मुश्किल वाला गाना था वो। देखना, एक दिन ये लड़का बहुत आगे जाएगा"। अब राजस्थानी आदमी राजस्थानी कलाकार की तारीफ़ ना करे ऐसा भला हो सकता है?

फिर और जितने भी जूनियर गाने आये उनका भी पूरा भूत, वर्तमान और भविष्य हमने मयूर भाई के अथाह ज्ञान की बदौलत जाना और कृतार्थ होते रहे ।

इसी तरह का अपना ज्ञान मयूर भाई अगले एक घंटे तक हमें बांटते रहे और हम अपने धैर्य पर पूर्ण नियंत्रण के साथ मुस्कुरा मुस्कुरा कर ज्ञान रस पीते रहे।

उस एक घंटे के दौरान कभी कभी हम टी वी को "भी" देख रहे थे ।

इस बीच में हमने चाय के गुणों के बारे में भी मयूर भाई से जाना और कार्यक्रम के अंतराल में चाय के शौकीन मयूर भाई के साथ विनोद द्वारा बनाई चाय की चुस्कियां भी ली ।

करीब सवा ग्यारह बजे मयूर भाई जब विदा हुए तो गुनगुने पानी के साथ एक एक सेरिडोन की गोली लेकर अपने अपने कमरों में सोने चले गए । ये अलग बात है की नींद एक डेढ़ बजे ही आई ।

मैं आपको राय देना चाहूंगा की कभी मयूर भाई का फ़ोन आये तो एक तो ये मत कहना कि आप भी फलां फलां कार्यक्रम को पसंद करते हैं और दूसरा ये कि आपके टी वी में उनके प्रोग्राम वाला चैनल आता है ।

आप सभी को दीपावली की अग्रिम शुभकामनाओं के साथ प्यार भरा नमस्कार । फिर मिलेंगे । जय हिन्द।

आत्मविश्वाश - Self Confidence


....शिव शर्मा की कलम से....

Wednesday 28 October 2015

बेटियां - Daughters


बेटियां - Daughters


वैसे तो आजकल समाज काफी कुछ जागरूक हो गया है लेकिन देखा गया है की अभी भी कई जगह कई लोग बेटे बेटी में फर्क करते हैं । कई बार शायद हम भी ।

ये एक कटु सत्य है कि लड़के के जन्म पर जहाँ जश्न मनाये जाते हैं, बधाइयां दी जाती है वहीँ कन्या के जन्मने पर हमारे मुंह से ओह की आवाज निकलती है । और दूसरी लाइन अक्सर ये होती है "कोई बात नहीं जी, भगवान् अगली बार लड़का देगा"।

पता नहीं हमारी ये मानसिकता कब बदलेगी, ना जाने वो दिन कब आएगा जब बिटिया के जन्म पर भी हम वही खुशियां, वोही जश्न मनाएंगे जो बेटे के जन्म लेने पर मनाते हैं ।

कब हम बेटियों को पराया धन समझने की बजाय वो रौशनी समझेंगे जो मायके और ससुराल, दो दो घरों में उजाला करती है ।
बेटी शब्द एक ऐसा उजाला है, जिसे शब्दों की परिधि में बांधना एक अनर्थक प्रयास है, और ये जानते हुए भी कि मैं अच्छा कवी नहीं हुं, फिर भी बेटियों के प्रति अपने मन के भावों को एक कविता के माध्यम से आपको समर्पित कर रहा हूं ।

"बेटी"
"वसंत ऋतू की बयार है बेटी,
पायल की मधुर झनकार है बेटी,
पहली बारिश की फुहार है बेटी,
ईश्वर का प्यारा उपहार है बेटी ।

चाँद की चांदनी सी शीतल,
ये नदी की धार सी निर्मल,
सागर की लहरों सी चंचल,
ये फूलों की पंखुड़ी सी कोमल,
पतझड़ में आई जैसे बहार है बेटी,
ईश्वर का प्यारा उपहार है बेटी ।

पिता की फिक्र है इसको,
माँ का है ख़याल इसको,
कब किसको क्या जरुरत,
है इसका ख़याल इसको,
शीतल झरने की धार है बेटी,
ईश्वर का प्यारा उपहार है बेटी ।

भाई का ध्यान ये रखती,
भाभी का मान ये रखती,
जाती है हो कर विदा तो,
पीहर की शान ये रखती,
खुद में समेटे सारा संसार है बेटी,
ईश्वर का प्यारा उपहार है बेटी ।

फूलों की सुहानी महक है बेटी,
माँ बाप के चेहरे की चमक है बेटी,
सच मानो, देवी का रूप है बेटी,
सर्दी की सुहानी धुप है बेटी,
बेटा घर का स्तम्भ तो आधार है बेटी
ईश्वर का प्यारा उपहार है बेटी ।।"

मित्रों, ईश्वर के इस अनमोल उपहार को सहेज के रखने के लिए हमें खुद भी जागना है और औरों को भी जागरूक करने का प्रयास करना है ।

मेरे विचार आपको कैसे लगे अपनी राय से अवगत कराएं । मुझे इंतजार रहेगा ।
फिर मिलेंगे । जय हिन्द ।।
.....शिव शर्मा की कलम से....



Tuesday 27 October 2015

रंगीला राजस्थान - The colourful Rajasthan

रंगीला राजस्थान - The colourful Rajasthan



भारत एक बहुत ही खूबसूरत और विविधता भरा देश है, अपने आप में अनेकोनेक रंग समेटे हुए । अलग अलग तरह के धर्म, कई तरह की भाषाएं और विभिन्न राज्यों रूपी फूलों से जुड़कर बना एक सूंदर सा हार । जिसका हर राज्य इतिहास के पन्नों पर दर्ज है अपनी अपनी शौर्य गाथाओं से ओतप्रोत ।

ऐसे ही भारत के उत्तर पश्चिम में स्थित है महाराणा प्रताप की भुमी राजस्थान । जिसकी धरती से अनेकों वीर निकले थे जो आज भी लोगों के दिलों में बसे हैं । आज भी राजस्थान के लोग गर्व और सम्मान के साथ उनकी गाथा गाते हैं ।

मैं भी राजस्थान के एक छोटे से कस्बे से हुं । राजस्थान के लोग अक्सर हर बात को हल्के फुल्के ढंग से ही लेते हैं । हंसी मजाक तो राजस्थानियों के रग रग में बसा है । कोई भी माहौल हो राजस्थानी उसमें से हास्य निकाल ही लेते हैं।

एक बार किसी मियां बीबी में किसी बात को लेकर झगड़ा हो गया, मोहल्ले के बड़े बुजुर्ग दोनों को समझा रहे थे ।

"बेटा पति पत्नी परिवार नामक गाडी के दो पहिये होते है, एक भी पहिया ठीक से नहीं चले तो गाड़ी के चलने में मुश्किल हो जाती है"।

अब संयोग से लड़का थोडा दुबला पतला था और उसकी पत्नी थोड़ी भारी डीलडौल वाली। तो लड़के ने कहा



"काका बात तो आप री ठीक है, पर गाड़ी का एक पहिया साइकिल का अर एक जे ट्रक का होवे तो गाड़ी कैसे चलेगी"। सब हंस पड़े और उन दोनों में सुलह करा कर अपने अपने घर चले गए।

मौका अगर किसी शादी का हो तो फिर कहना ही क्या, ठहाकों से आसमान गूंजता रहता है । बात बात पर हंसी । चुटकुलों कहानियो का दौर चलता रहता है। ऐसे में एक 65-70 वर्षीय बुजुर्ग एक चुटकुला सुना रहे थे कि :

एक बार क्या हुआ एक गाँव में किसी लड़की की शादी थी ....और उस ज़माने में लड़की लड़कों का रिश्ता बड़े बुजुर्ग तय कर देते थे, जब बारात आती थी तब ही घर की औरतें लड़के को देख पाती थी।... तो जैसे ही बारात आई लड़की की माँ ने ज्यों ही दूल्हे को देखा तो अड़ गयी और उलाहने के साथ अपने पति से कहा,

"बिंद (दूल्हा) तो बुड्ढा है, मैं तो ना ब्याहुँ मेरी लड़की इसके साथ"।

मामला गड़बड़ हो गया । सब लड़की की माँ को समझा रहे थे । लड़की के पिता जो काफी देर से चुप थे वो बोले,

"अरी भागवान, जो फैसला करना है जल्दी कर, नहीं तो ये और बुड्ढा होता जा रहा है"

फिर तो पूरा शामियाना ठहाकों से हिल गया । थोड़ी देर बाद एक दूसरे बुजुर्ग ने हँसते हुए उनसे कहा,

"रे रतनलाल, इब तो सुधर जा तू, बुड्ढा हो गया है अब"

तो उन्होंने कहा "रे कान्हा, क्या बात करता है, राजस्थान में कोई बुड्ढे होते हैं कभी, सब भूतपूर्व नोजवान होते है" ।

उनकी ये बात सुनकर एक बार फिर ठहाके गूँज उठे।

राजस्थान के लोग जितने खुशगवार होते है उतने ही मिलनसार और अपने काम के प्रति भी कर्मठ होते है । ज्यादातर लोग अन्य राज्यों में जीविकोपार्जन हेतु जाते है और वहां की संस्कृति, वहां के लोगों में घुलमिल जाते हैं। लेकिन पहचाने मारवाड़ी के सम्बोधन से ही जाते हैं।

देश विदेश के कोने कोने में राजस्थानी रहते है । एक कहावत भी है की "जहाँ न जाए गाड़ी, वहां जाए मारवाड़ी।"

दान पुण्य के काम में भी मारवाड़ी आगे रहते है । जिसकी जितनी क्षमता होती है उस अनुसार सब समाज के उत्थान में अपना योगदान देते रहते है ।

आप कभी राजस्थान आयें तो एअरपोर्ट हो, रेलवे स्टेशन हो या बस स्टैंड । बाहर आपको स्वागत करता हुआ एक बोर्ड जरूर दिखेगा "पधारो म्हारे देस"।

ऐसा है मेरा राजस्थान, म्हारो रंगीलो राजस्थान । महान भारत भूमि का एक छोटा सा अंग । माँ भारती का दाहिना हाथ ।

अंत में ये कहते हुए आपसे विदा लेता हूँ ।

        "पधारो म्हारे देस"

......शिव शर्मा की कलम से....








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Monday 26 October 2015

काळू का दूसरा रूप - The other side of Kalu.

गाँव में सालाना जलसे की तैयारियां जोरशोर से चल रही थी । हर कोई व्यस्त नजर आ रहा था । हर साल दशहरे पर गाँव में तरह तरह के खेल हुआ करते थे और जितने वाले को पुरष्कृत किया जाता था ।

इस साल 500 मीटर की दौड़ में सबसे ज्यादा राशि पुरष्कार स्वरुप रखी गयी थी, पुरे दस हजार रुपये । सबके मुंह पर एक ही बात थी कि ये दस हजार का पुरष्कार काळू के हिस्से में ही जाने वाला है ।


जी हां वही काळू, बहुत ही हंसमुख, हाजिर जवाब और सबका प्रिय । काळू इन सबके साथ साथ अच्छा धावक भी था । हर वर्ष दौड़ में वो ही प्रथम आया करता था । दूसरे धावक भी कहते थे काळू तो राकेट है राकेट । हवा की तरह भागता है । काळू से जीतना मुश्किल है । लेकिन काळू से जब जीत का राज पूछा जाता तो कहता "जी मैं तो ये सोच के भागता हूँ की पीछे कोई कटखना कुत्ता लगा है, अगर रुका तो वो काट लेगा"।

इस बार गाँव में एक नया परिवार आया था । प्रवीण और उसके बूढ़े माता पिता । गरीब लेकिन मिलनसार और खुद्दार परिवार था । पिता दिहाड़ी मजदूरी का काम करके परिवार चलाते थे। प्रवीण की माँ बीमार रहती थी पता नहीं क्या बीमारी थी लेकिन गाँव वाले बताते थे की इसका इलाज शहर के अस्पताल में हो सकता है मगर  उसके इलाज के लिए उन लोगों के पास इतने पैसे नहीं थे कि उसे शहर ले जा सके।

प्रवीण भी कॉलेज से आने के बाद पिता के साथ मजदूरी करके उनका हाथ भी बंटाता था। उसको भी कुछ पैसे मिल जाया करते थे।

एक दिन काळू ने मुझसे कहा "भाईजी आप प्रवीण से कहो ना दौड़ में हिस्सा ले" क्या पता वो जीत जाए तो उन पैसों से उसकी माँ का इलाज हो जाए और वो स्वस्थ हो जाए । और हाँ, उसे ये मत कहना की मैंने आपको इसके लिए कहा था"।

मैंने हंसकर कहा "काळू, आसपास के दस गाँवों में कोई है जो तुझसे दौड़ में मुकाबला कर सके? फिर भी तुम कहते हो तो मैं बोलूंगा उसे"।

मैंने प्रवीण से बात की तो उसने बड़े ही सम्मानजनक शब्दों में कहा "भाईजी काळू भैया के होते हुए मैं दौड़ में हिस्सा लूं ये मुझे अच्छा नहीं लगेगा, वो बहुत अच्छे धावक और उतने ही अच्छे इंसान है, मैं भी उनका बहुत आदर करता हूँ"। अब उसको मैं कैसे बताता की उसी काळू ने मुझे उसे दौड़ में हिस्सा लेने के लिए कहा है क्योंकि काळू ने मुझे बताने से मना किया था । लेकिन मैंने उससे कहा की प्रवीण ये सिर्फ एक प्रतिस्पृद्धा है, हार या जीत अपनी मेहनत पर निर्भर है, हम सब जानते है काळू जीत का पक्का दावेदार है लेकिन काळू से हारना भी तो तुम्हारे लिए गर्व की बात होगी ।

थोड़ी ना नुकर के बाद प्रवीण मान गया और उसने भी अपना नाम प्रतियोगियों में लिखवा दिया । मैंने कहा प्रवीण 15 दिन है तुम्हारे हाथ में आज से ही तैयारी शुरू कर दो।

सभी प्रतियोगी अपने अपने खेलों की तैयारियों में लगे थे । काळू भी खूब दौड़ लगा रहा था और प्रवीण भी ।

आखिर प्रतिस्पृद्धा वाला दिन आ ही गया । प्रतियोगिता स्थल पर पुरा गांव इकठ्ठा हो चूका था । लंबी कूद, ऊँची कूद, कबड्डी, भाला फेंक जैसी प्रतियोगिताएँ चल रही थी लेकिन सब कोई उत्सुक थे 500 मीटर की दौड़ देखने के लिए ।

तभी घोषणा हुयी कि अब 500 मीटर की दौड़ शुरू होगी । सभी प्रतियोगी अपना अपना स्थान लें । दर्शकों में भी जबरदस्त उत्साह छा गया । दौड़ शुरू हुयी और जैसा की अपेक्षित था, काळू कुछ ही समय में सबसे आगे था, प्रवीण ने भी शायद काफी मेहनत की थी वो काळू से थोडा ही पीछे दूसरे नंबर पर था । बाकि प्रतियोगी तो बहुत पीछे छूट चुके थे ।

तक़रीबन 400 मीटर की दुरी तय हो चुकी थी, स्तिथि अब भी वही थी, काळू लक्ष्य के काफी करीब था लोग प्रतीक्षा कर रहे थे काळू कब निर्धारित रेखा पार करे, तभी अचानक ये क्या? काळू उस रेखा से करीब 50 कदम पहले लड़खड़ा कर गिर पड़ा । वो जब तक संभल कर वापस खड़ा होता, प्रवीण जो उस से थोडा ही पीछे था, उस रेखा को छु चूका था ।

प्रवीण ने प्रतियोगिता जीत ली थी ।  लेकिन उसने ये हकार पुरस्कार लेने से ना कर दी कि काळू भैया गिर गए थे, अन्यथा वो ही विजेता होते, इसलिए इस पुरस्कार पर उनका ही हक़ है।

लेकिन काळू ने कहा की प्रवीण मैं अपनी गलती से गिरा था, मुझे तुमने तो नहीं गिराया था ना अतः इस पुरस्कार के सिर्फ तुम ही हकदार हो, तुम भी लगभग मेरे बराबर ही दौड़ रहे थे । इसलिए गर्व के साथ ये पुरस्कार तुम स्वीकार करो ।

प्रवीण ने उस पुरस्कार की राशि की सहायता से अपनी माता की चिकित्सा करवाई । उसकी माँ आज स्वस्थ है और प्रवीण का पूरा परिवार भी । प्रवीण पढ़लिख कर सौभाग्य से शहर की एक किसी प्रतिष्टित कंपनी में काम लग गया और उसको अच्छी तनख्वाह मिल रही है ।

गाँव वाले आज भी काळू की हार को पचा नहीं पा रहे हैं, क्योंकि वो वह नहीं जानते जो मैं जानता हूँ कि उस दिन काळू लड़खड़ा कर नहीं बल्कि जान बूझकर गिरा था। काफी पूछने पर काळू ने मुझे किसी को ना बताने की शर्त के साथ ये बात बताई थी ।

लेकिन काळू के त्याग की ये बात आज मैं आपके साथ बाँट रहा हूँ, काळू से किया अपना वादा तोड़ कर ।

काळू के बहुत से किस्से हैं जो एक ही बार में समेटना मुश्किल है अतः समय समय पर काळू के किस्से आप सब से कहता रहूँगा ।

आज के लिए विदा दीजिये । कल फिर मिलेंगे ।

जय हिन्द
....शिव शर्मा की कलम से...

Sunday 25 October 2015

सपने - The Dreams

सपने - The Dreams


स्वर्णरथ पर बैठा मैं अपने आप को किसी  शहंशाह से कम नहीं समझ रहा था । रथ के पीछे लोगों का हुजूम चल रहा था और महाराज की जय के गगन भेदी नारे पुरे आसमान में गूँज रहे थे ।

तभी एक दरबारी ने आकर कहा की रानी रूपकंवर जी मुझे रनिवास में बुला रही है ।

रूपकंवर से कुछ समय पूर्व ही मेरा विवाह हुआ था । पडोसी राज्य की राजकुमारी थी वो, और अत्यंत सूंदर थी । कल किसी बात पर उनसे मेरा झगड़ा भी हो गया था और वो मुझसे रुष्ट थी,  फिर भला मैं इस बुलावे को कैसे टाल सकता था इसलिए शोभा यात्रा को बीच में ही छोड़ कर मैं महल में चला आया ।

पर ये क्या? रूपकुंवर के साथ उसके पिताजी और भाई भी कक्ष में बैठे कुछ चर्चा कर रहे थे । मुझे देख के बोले "आइये महाराज, सुना है आज कल काफी शक्तिशाली हो गए हो जो स्त्रियों को अपनी शक्ति दिखाते हो, हमें रूपकंवर ने सब बता दिया है इसलिए हम इसे अपने साथ वापस ले जा रहे हैं, अब ये आपके साथ नहीं रहेगी ।

मैं हक्काबक्का हो गया और हाथ जोड़कर अपने स्वसुर महाराज से क्षमा मांगने लगा । पिताश्री मुझे क्षमा कीजिये, रूपकंवर को यहाँ से मत ले जाइए । हम इनसे बहुत प्रेम करते है । कल गलती से हम क्रोधित हो गए थे और रूप को उल्टा सीधा बोल दिया था मगर हम आप से वादा करते है भविष्य में ऐसा दुबारा नहीं होगा, कृपा करके आप रूप को यहाँ से मत ले जाइए ।

लेकिन उन्होंने मेरी एक ना सुनी और रूप को लेकर कक्ष से निकल गए, मैं रूप रूप चिल्लाता उनके पीछे भागा तथा दरवाजे की चौखट से टकराकर लड़खड़ा कर गिर पड़ा........

अचानक मेरी आँख खुल गयी और मैंने पाया की मैं सचमुच लुढ़ककर बिस्तर से निचे गिरा पड़ा था।

बताते बताते दीपक हंस पड़ा और उसके साथ साथ हम भी हंस पड़े । सचमुच दीपक, बड़ा मजेदार सपना था । सपने में ही सही तू राजा तो बन गया, हाहाहाहाहा । हँसते हँसते मुकेश बोला ।

सच में दोस्तों, सपने कितने अजीब होते है । हमें वो दिखा देते है जो वास्तविकता में हमसे कोसों दूर होता है । जो कुछ हम सपने में देखते है वह शायद कभी हमने "सपने" में भी नहीं सोचा होगा ।

सपनों में कुछ लोग विदेशों की सैर कर आते हैं, कुछ अपने प्रेमी प्रेमिका से उसके और अपने माता पिता की मर्जी से शादी के बंधन में बंध जाते हैं । कुछ तो सपनों में अपने मनपसंद फिल्मो के हीरो हिरोइन के साथ उन्ही की डाइनिंग टेबल पर उनके साथ बैठकर लंच डिनर कर आते है । अपना बचपन वापस जी लेते है, सपने में अपना बुढ़ापा भी देख लेते है।

वाकई, बड़ी खूबसूरत और अजीबोगरीब दुनिया है सपनों की । हमें पंख लग जाते है और कुछ ही समय में हम पूरी दुनिया की सैर कर आते है ।

परंतु सपने तो सपने ही हैं । मजा तो तब आये जब हम इन सपनों को अपनी मेहनत और लगन से साकार कर लें, इन्हें सच बना लें । सपने देखना भी जरुरी है क्योंकि सपने देखेंगे तभी तो हम उन्हें पूरा करने का प्रयास करेंगे । और निश्चित ही हम ये कर भी सकते हैं अगर अपने मन में ठान लें । आपने भी कई सपने देखे और पुरे किये होंगे ।

वैसे जागती आँखों से देखे गए सपने अक्सर इंसान पुरे कर लेता है, अतः सपने देखिये, जागती आँखों से सपने देखिये और लगा दीजिये अपना पूरा जोर उन्हें पूरा करने में ।

माननीय कलाम साहब ने भी कहा था की सपने वो नहीं जो हम सोते हुए देखते हैं, सपने तो वो है जो हमें सोने ना दे।

कलाम साहब को सादर नमन करते हुए अभी के लिए विदा चाहूंगा । जय हिन्द मित्रों । फिर मिलेंगे ।

....शिव शर्मा की कलम से....


Saturday 24 October 2015

ख़ुशी - The Happiness

ख़ुशी - The Happiness


वर्षों से हम एक ही चीज तलाश कर रहे हैं "ख़ुशी"। लेकिन मिल नहीं पा रही है । पूरी दुनिया खूब जोर लगा कर इसे ढूंढ रही है, पर ये ख़ुशी ना जाने कायनात के किस कोने में जा के छुप गयी है कि किसी को ढूंढे नहीं मिल रही है ।

मेरा एक मित्र किराए के घर में रहता था, उसका सपना था कि उसका अपना एक घर हो, अगर उसका अपना घर  हो जाए तो उसे दुनिया भर की खुशियाँ मिल जाए । संयोग से अपनी मेहनत, चाहत और बैंक लोन की बदौलत उसका अपना घर हो गया । आज छह महीने बाद मिला तो बैंक लोन की मासिक क़िस्त के बारे में रोना रो रहा था । "भाईजी बहुत तकलीफ है, इस से अच्छा तो किराया भरना आसान था, कम से कम इस क़िस्त से तो कम था। कभी कभी तकलीफ में मकान मालिक को दो तीन महीने का किराया तीन महीने बाद एक साथ दिया करता था । जबसे अपना मकान लिया है पैसों की तंगी रहने लग गयी है । दुखी हो गया हु भाईजी ।"
ख़ुशी - The Happiness

ऐसे ही एक मेरे कंवारे मित्र,  जिनकी उम्र करीब 30 साल हो चुकी थी पर शादी नहीं हो पा रही थी । जब भी मिलते  एक ही बात "यार कोई ढंग की लड़की से शादी हो जाए तो जीवन सफल हो जाए । घर में बीवी हो तो शाम को घर आने का भी मन करेगा । वो मेरे लिए गरमा गरम खाना बनाएगी फिर हम साथ बैठ के खाएंगे।" वगैरह वगैरह ।

उनकी शादी भी हो गयी और मात्र एक साल बाद ही पति पत्नी एक दूसरे का माथा फोड़ते नजर आ रहे थे । जहां पति को पत्नी द्वारा बनाये खाने में कोई स्वाद नहीं आ रहा था,  वहीँ पत्नी को पति संसार का सबसे नालायक व्यक्ति नजर आ रहा था ।

ऐसे ही कोई सोचता है फलां कंपनी में नोकरी मिल जाए तो जिंदगी खुशहाल हो जाये । उसे वह नोकरी बाय चांस मिल जाती है, मगर 3-4 महीने बाद उसका बयान होता है की इस से तो पहली वाली नोकरी अच्छी थी । तनख्वाह भले ही कम थी पर काम का इतना बोझ नहीं था ।
ख़ुशी - The Happiness

कोई अपना व्यवसाय शुरू करता है और कुछ ही दिनों बाद ये कहता दिखाई पड़ता है, "इस से बढ़िया तो नौकरी कर रहे थे वो ही ठीक था, कम से कम एक निश्चित रकम तो घर में आ रही थी ।"

अब सवाल ये ही कि आखिर ख़ुशी है किस चीज में । मनचाही लड़की या मनचाहे लड़के से शादी हो जाये, खुद की गाड़ी हो जाए, बेटा बेटी हो जाए, अपना मकान हो जाये या खुद का व्यापार हो जाए ।

जिसके पास ये सब कुछ है क्या वो खुश है? नहीं,  वह भी दौड़ रहा है ख़ुशी की तलाश में एक अंधी दौड़ । मगर ख़ुशी कभी नहीं मिल पाती । मिलती है, लेकिन क्षणिक होती है, स्थायी नहीं रहती । कुछ ही दिनों में जो ख़ुशी मिली है उस से मोहभंग हो जाता है, और हम फिर से निकल पड़ते है दूसरी किसी बड़ी ख़ुशी की तलाश में। जिंदगी रीत जाती है जद्दोजहद करते करते, लेकिन ये तलाश पूरी नहीं हो पाती ।

अगर सच में हम खुश होना चाहते तो हमें पता चल जाता की खुशियाँ तो बिखरी पड़ी है हमारे आसपास । नाहक ही हम उसे संसार की भौतिक वस्तुओं में ढूंढ रहे थे । मेरा परिवार,मेरे माता पिता, मेरे भाई बहन, मेरी पत्नी, मेरे बच्चे । ये सब भी तो है मेरी ख़ुशी की वजहें । ये सब भी तो मुझे ईश्वर प्रदत्त उपहार है । क्यों ना मैं इनके साथ और ये मेरे साथ खुश रहें।

सुबह का उगता सूरज देखो, पूरा गगन खुश नजर आता है । बागों में खिलती हुयी कलियाँ हमें खुशियों का सन्देश देती है । पंछियों का कलरव, झरनों का संगीत । सब के सब अनवरत खुश है, और रोज होते हैं । फिर हम क्यों नहीं ।
ख़ुशी - The Happiness

दरअसल हमने खुशियों को एक सिमित दायरे में कैद कर दिया है। उनकी एक समय सीमा तय कर दी है । अलग अलग लक्ष्य बना दिए है की जब मेरा ये फलां फलां सपना पूरा होगा तब खुश होऊंगा ।लेकिन होता ये है की जब हम एक सपना पूरा कर लेते है तब तक बीसियों और दूसरे नाना प्रकार के सपने हमारे दिलोदिमाग में घर कर चुके होते है । जिनके लिए ये उम्र छोटी पड़ जाती है और भागते भागते एक दिन हमारे कदम जवाब दे देते है, थम जाते हैं। अंत में हम मजबूर हो जाते है रुकने के लिए, थक कर बैठ जाने के लिए ।

दोस्तों, हर पल खुश रहो, हर हाल में खुश रहो । याद रहे, कल पर अपना वश नहीं चल सकता लेकिन आज हमारे हाथ में है । इस आज को भरपूर जियें । जिंदगी अनेकों वजहें देती है मुस्कुराने की, उनका आनद उठायें, उनको पकड़ के रखें ।

अंत में चलते चलते ग़ालिब साहब का एक शेर कहना चाहूंगा जो चुपके से काफी कुछ कह देता है ।

"उम्र भर ग़ालिब ये ही भूल करता रहा,
धुल चेहरे पर जमी थी आइना साफ़ करता रहा"
....शिव शर्मा की कलम से......









आपको मेरी ये रचना कैसी लगी दोस्तों । मैं आपको भी आमंत्रित करता हुं कि अगर आपके पास भी कोई आपकी अपनी स्वरचित कहानी, कविता, ग़ज़ल या निजी अनुभवों पर आधारित रचनायें हो तो हमें भेजें । हम उसे हमारे इस पेज पर सहर्ष प्रकाशित करेंगे ।.  Email : onlineprds@gmail.com

धन्यवाद


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Friday 23 October 2015

बचपन - Childhood, Samay Badalta Hai Roop Apna

बचपन - Childhood


गाड़ी अपने गंतव्य की और सरपट भागी जा रही थी । समय करीब सुबह के नौ बजे थे । डिब्बे में ज्यादा भीड़ नहीं थी लेकिन तक़रीबन भरा हुआ था । मेरे सामने की सीट पर बैठा बच्चा मोबाइल पर द्रुत गति से उंगलियां चला रहा था, शायद मोबाइल पर कोई गेम खेल रहा था ।

मैं सोचने लगा, आज समय कितना बदल गया है । इस बच्चे की उम्र करीब 8 - 9 साल होगी लेकिन दीन दुनिया को भूल कर ये मोबाइल में ऐसे खोया हुआ है जैसे इसके आगे और कुछ भी नहीं है ।
 बचपन - Bachpan, Samay Badalta Hai Roop Apna

जब से नई नई तकनीकें विकसित हुई है बचपन चारदीवारी के बीच सिकुड़ कर रह गया है, बाहरी दुनिया से इनका रिश्ता लगभग ख़त्म सा हो चूका है । सुबह स्कूल बस से स्कूल चले जाते हैं, वापस आकर दुनिया भर का होमवर्क, क्लासेज । इनके पास इतना समय ही नहीं है की बाहर बगीचे में जा के प्रकृति को निहारें । फूलों की खुशबु लें । लहरो की अठखेलियों का लुत्फ़ उठाये । इनकी मनोरंजन की दुनिया कंप्यूटर और मोबाइल तक सिमित हो के रह गयी है।

उस बच्चे को देख कर मुझे मेरा बचपन याद आने लगा । उस वक्त कंप्यूटर मोबाइल नहीं हुआ करते थे । हम क्रिकेट,फुटबॉल के खेल मैदानों में ही खेला करते थे, मोबाइल में नहीं।

सुबह माँ उठा के तैयार करती थी। करीने से बाल संवारती थी। माथे पे प्यार से काला टिका भी लगाती थी। फिर पिताजी के साथ मैं लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर स्तिथ स्कूल जाया करता था । 


बचपन - Bachpan, Samay Badalta Hai Roop Apna

हमारे साथ ही मोहल्ले के और 4-5 बच्चे भी होते थे । भोजनावकाश में हम सब बच्चे साथ बैठकर घर से लाये अपने अपने टिफ़िन खोलकर नाश्ता किया करते थे ।

स्कूल से आकर खाना खाने के बाद थोडा आराम करते थे फिर शाम तक स्कूल में दिया हुआ होम वर्क ख़त्म करके कुछ देर सब बच्चे खेलने के लिए इकठ्ठा होते थे।

शाम का समय खेल कूद का समय ही हुआ करता था । गिल्ली डंडा, सतोलिया, कबड्डी जैसे हमारे खेल होते थे । खेल के खेल और व्यायाम का व्यायाम। कभी कभी किसी बात पर लड़ते झगड़ते भी थे मगर कुछ देर बाद सब भूल भाल के खेलने में मशगूल हो जाया करते थे ।


बचपन - Bachpan, Samay Badalta Hai Roop Apna

मुझे याद है एक बार पकड़म पकड़ाई खेलते वक्त नरेश ने अनजाने में विमल को जोर का धक्का मार दिया था । विमल गिर गया था और उसके माथे पर थोड़ी सी चोट लग गयी । नरेश तुरंत भागकर घर से पानी का लोटा भर लाया था । अपने हाथों से उसने विमल की चोट को धोया, उसे पानी पिलाया और फिर उसके घर जाकर उसके माता पिता के सामने अपनी गलती भी क़ुबूल की । विमल के माता पिता ने भी नरेश को दुलार वाली डांट के साथ क्षमा कर दिया था।

परंतु आज का बचपन खो रहा है प्रतिस्पर्धाओं की दौड़ में । नंबर कम आये तो पीछे रह जायेंगे,  ठीक से नहीं पढ़ पाये तो आगे जमाने के साथ कैसे कदम मिला के चल पाएंगे,  का ख़ौफ़ छोटे से दिमाग में पसरा हुआ है । हम भी अपने बच्चों का शायद ऐसे ही भविष्य के अनदेखे दृश्य दिखा दिखा कर डरा रहे है, आस्चर्य होता है जब छोटे छोटे बच्चों को अभी से ये कहा जाता है की बड़ा हो के तुम्हें डॉक्टर बनना है, इंजीनियर बनना है, विदेश में सेटल होना है।


बचपन - Bachpan, Samay Badalta Hai Roop Apna

जिसे अभी ये भी नहीं पता कि एक मोटर के चलने के पीछे कौनसी शक्ति काम करती है उस से हम हवाई जहाज उड़ाने की बात कर रहे हैं।



जरा सोचिये मित्रों कि आज का बचपन क्या वाकई अपना बचपन जी रहा है?  क्या वो सफ़ेद पंखो वाली परियों से मिलने के बारे में सोच रहा है?  क्या उसके नन्हे से दिमाग में चाचा चौधरी जैसा सुपर दिमाग पाने की लालसा है?,  या अभी से वो आगे आने वाले 14-15 सालों के बाद की बातो के बारे में सोच के खो रहा है, कहीं शुन्य में ।

आपके विचार, सलाह और सुझावों की प्रतीक्षा रहेगी ।

......शिव शर्मा की कलम से.....










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Thursday 22 October 2015

आत्मविश्वाश - Self Confidence


आत्मविश्वाश - Self Confidence


प्रेम एक मध्यम वर्गीय परिवार का पढ़ा लिखा और संस्कारी लड़का था और किसी कपड़े की कंपनी में नोकरी कर रहा था ।

पिता की असमय मृत्यु ने परिवार की जिम्मेदारी उसके कन्धों पर डाल दी थी । छोटी बहन अभी कॉलेज में अंतिम वर्ष की पढाई कर रही थी ।

पिताजी एक प्राइवेट कंपनी में नोकरी करके परिवार चलाते थे । घर खर्च के बाद कोई नाम मात्र की बचत हो पाती थी, वो भी पिताजी के इलाज में स्वाहा हो चुकी थी । ऊपर से थोडा बहुत कर्जा भी सर पर हो गया था।  (आत्मविश्वाश,  Self Confidence)

प्रेम अक्सर इस चिंता में रहता था कि उसकी वर्तमान कमाई से भविष्य में होने वाले खर्चो की भरपाई होनी मुश्किल है । बहिन की शादी, खुद की शादी। माँ भी पिताजी के जाने के बाद बीमार सी रहने लगी है ।

वैसे तो अपने काम में प्रेम होशियार था लेकिन इन चिंताओं के चलते उसका दिमाग नकारात्मक सोच वाला हो गया था। उसे लगने लगा कि वो कभी कुछ नहीं कर पायेगा।


मष्तिष्क में चलने वाले इन बवंडरों के कारण वो अक्सर गलतियां भी कर दिया करता था । एक बार ऐसी ही एक गलती की वजह से उसके कारण कंपनी को कुछ नुक्सान हुआ और उसे अपनी नोकरी से भी हाथ धोना पड़ गया।  (आत्मविश्वाश,  Self Confidence)

अब तो प्रेम एकदम से टूट गया, उसको चारों और अँधेरा नजर आने लगा । वक्त की मार ने उसे अंदर तक झिंझोड़ दिया था । मन बहलाने के लिए वह अपने एक मित्र के घर चला गया ।

उसका मित्र एक सुलझा हुआ और हमेशा सकारात्मक सोच रखने वाला व्यक्ति था । उसने प्रेम को दिलाशा दी और ढाढस बढ़ाते हुए कहा "प्रेम चिंता मत करो, तुम अनुभवी और अपने काम में माहिर हो, कल तुम मेरी ऑफिस आना, अपने बॉस से तुम्हारी मुलाकात करवा दूंगा, हमारी कंपनी में तुम्हारे जैसे एक आदमी की जरुरत भी है, शायद तुम्हारा अनुभव हमारी कंपनी के लिए काम का साबित हो, और हां अगर तुम्हे लगे की बॉस तुम्हें मौका देने की सोच रहे हैं तो अपनी तनख्वाह इतनी बताना जिस से तुम्हारा वर्तमान सुधर सके और भविष्य सुरक्षित हो सके।"  (आत्मविश्वाश,  Self Confidence)

प्रेम अगले दिन अपने मित्र की ऑफिस गया, वहां उसे नोकरी भी मिली और मनचाही तनख्वाह भी। आज प्रेम उसी कंपनी में एक उच्च पद पर कार्यरत है एवं अपने फ्लैट में माँ और अपनी पत्नी के साथ रहता है, बहिन की भी शादी हो गयी, वो अपने ससुराल में खुश है।

मित्रों इस कहानी का तात्पर्य ये है कि परिस्थितियां चाहे जैसी भी हो, हमें हार नहीं माननी चाहिए । अगर हम अपनी सोच को सकारात्मक रखें तो तूफानों का रुख भी मोड़ सकते हैं । जीवन में उतार चढ़ाव आते रहे है और अक्सर समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है, अगर हम उनका डटकर मुकाबला करें तो जीत निश्चित ही हमारी होगी ।
(आत्मविश्वाश,  Self Confidence)






मुझे किसी शायर का एक शेर याद आ रहा है जो ऐसी परिस्थितियों में सटीक बैठता है :

"गुजर जायेगा ये दौर भी, जरा इत्मिनान तो रख,
जब ख़ुशी ही न ठहरी तो गम की क्या औकात है"

इसलिए अपना आत्मविश्वास कभी ना छोड़े  और जीवन का आनद लें।


इन्ही विचारों और आपके सुझावों की प्रतीक्षा के साथ आप सबको दशहरे की शुभकामनाएं देते हुए मैं शिव शर्मा आपसे अभी के लिए विदा चाहूंगा । जल्दी ही फिर मुलाकात होगी ।
(आत्मविश्वाश,  Self Confidence)








शिव शर्मा की कलम से...








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Wednesday 21 October 2015

नजफगढ़ के नवाब, वीरेन्द्र सहवाग - Virendra Sehwag


नजफगढ़ के नवाब, वीरेन्द्र सहवाग - Virendra Sehwag

क्रिकेट के एक और सितारे ने आज अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट को अलविदा कह दिया । वीरेंदर सहवाग वो बल्लेबाज थे जिनके क्रीज़ पर होने से क्रिकेट प्रेमी एक तूफानी पारी की उम्मीद किया करते थे ।(Virendra Sehwag)

नजफगढ़ के नवाब के नाम से मशहूर 37 वर्षीय इस युवा ने अपने क्रकेट जीवन का भरपूर आनंद उठाया । इनका खेलने का अंदाज इतना निराला था की तेज गेंदबाज हो या स्पिनर गेंदबाज, इनको गेंद फेंकने में ख़ौफ़ज़दा रहते थे । (Virendra Sehwag)

वीरू ने अपना पहला वन डे शतक मात्र 70 गेंदों में बनाया था और अपने पहले टेस्ट मैच की शुरुआत शतक लगा कर की थी।
सबसे तेज 300 रन बनाने वाला ये लोकप्रिय बल्लेबाज अब अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट मैचों में दिखाई नहीं देगा ये सोच के इनके दुनिया भर के प्रशंसक निश्चित ही उदास होंगे । (Virendra Sehwag)


Watch Viru hits 26 runs in one over against Sri Lanka 4,4,6,4,4,4.

जब तक वीरू क्रीज़ पर होते थे दर्शक उनकी बल्लेबाजी का भरपूर आनंद उठाते थे । गेंद ज्यादातर बाउंड्री के पार ही दिखती थी । बड़े से बड़ा स्कोर भी छोटा लगता था जब नजफगढ़ के नवाब खेल रहे होते थे।

सचिन तेंदुलकर और वीरेन्द्र सहवाग जब एक साथ क्रीज़ पर होते थे तो वो क्षण दर्शकों के लिए सोने पे सुहागा हुआ करते थे । सचिन जहां स्वीप और स्ट्रेट ड्राइव वाले खूबसूरत शॉट लगते थे वहीँ वीरू अपने अंदाज में गेंदबाजों की धुलाई किया करते थे । (Virendra Sehwag)

हमारा सौभाग्य है की हमने इन महान खिलाड़ियों को खेलते हुए देखा, जिस से आने वाली पीढ़ी वंचित रह जायेगी ।



Three consecutive sixes off Tim Southee, New Zealand.


वीरू पाजी आप मैदान की क्रीज़ पर हों न हो हमारे दिलों की क्रीज़ पर हमेशा जमे रहोगे । जब जब भी बल्लेबाजी की चर्चा होगी आपका नाम हमेशा लिया जाएगा ।

क्रिकेट जगत के सितारे हमारे प्रिय वीरू पाजी तुम्हें 37वें जन्मदिन की शुभकामनाओं के साथ प्यार भरा सलाम। (Virendra Sehwag)



Sehwag handles Afridi.

.शिव शर्मा की कलम से...













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