Friday 27 November 2015

जा की रही भावना जैसी - Jaa ki rahi Bhavna Jaisi


जा की रही भावना जैसी - Jaa ki rahi Bhavna Jaisi


दिवाली अभी अभी धूम धड़ाके के साथ गयी थी । हल्की हल्की सर्दी शुरू हो चुकी थी । ठंड की चादर ओढ़े पुना शहर आराम की नींद ले रहा था । मैं वहां पर एक फैक्ट्री में नोकरी करता था । उसी ठंड में हम जैसे नोकरीपैशा लोग परिवार की जिम्मेदारियों को निभाने अपने अपने काम पर निकलते थे ।

आज सर्दी कुछ ज्यादा ही थी और कडाके की ठंड के कारण काम पर जाने का मेरा मन नहीं था । पर क्या करें, मजबूरी थी । काम पर नहीं जाएंगे तो पैसे कहां से मिलेंगे, जो आज जीवन की सबसे बड़ी जरुरत है । खैर गर्मी प्रदान करने वाली स्वेटर और उसके ऊपर जेकेट, हाथों में ऊनी दस्ताने और सर पर हेलमेट पहनकर घर से निकला ।

जा की रही भावना जैसी

मोटरसाईकल स्टार्ट कर अपने फैक्ट्री की ओर निकल पड़ा । मन तो चिल्ला चिल्ला कर कह रहा था, " जा.... जाकर रजाई ओढ़ कर सो जा..... आज के दिन आराम कर" । पर क्या करें जिंदगी की जंग लड़ने के लिए अर्थोपार्जन करना भी अत्यंत आवश्यक है ।



उस वक्त सुबह के पांच साढे पांच का समय था । वैसे तो इतने सवेरे रास्ते पर कुछ गिने चुने लोग ही होते है । लेकिन आज सुबह सुबह सड़क पर काफी चहल पहल थी । पुलिस भी जगह जगह पर खडी थी ।

थोडी दूर और चला तो कानों में कुछ हल्की हल्की आवाजें सुनाई दी । कुछ समझ पाता तभी एक हवालदार ने मुझे रोककर कहा, "भाई, यह रास्ता आज बंद है." मेरे द्वारा कारण पूछने पर उसने बताया, "अरे भाई, तुम्हे पता नहीं क्या? आज यहां से दिंडी यात्रा जाने वाली है"।

दिंडी, महाराष्ट्र की एक पदयात्रा है जो सदियों से चलती आ रही है। हर साल आषाढ एवं कार्तिक एकादशी के दिन महाराष्ट्र के कोने-कोने सेे हजारों श्रद्धालु भगवान् विठ्ठल की भक्ति से ओतप्रोत अपना काम-धाम, घर परिवार को छोड़, अपने प्रिय भगवान विठ्ठल को मिलने मीलों दूर से पंढरपुर पहुंचते है ।

यह पदयात्रा कई दिन चलती है । जिसमें गांव गांव से आकर लोग जुड़ते जाते है, और हर रात किसी गांव में आराम करने के लिए इन भक्तों की टोली रुक जाती है । जिस गांव में भी ये रुकते है, उस गांव के गांववासी इनके भोजन पानी की व्यवस्था निस्वार्थ भाव से करते है ।

जा की रही भावना जैसी

दिंडी में शामिल होने वाले भक्तों को वारकरी कहते है । वारी यानि यात्रा और वारकरी यानि यात्रा करनेवाले । ये वारकरी, समाज के हर तबके से होते है । इनमें ना उंचनीच का भेदभाव, ना अमीरी गरीबी का फर्क और ना ही बच्चों बूढों का अंतर । हर कोई एक समान । हर किसी के मन में बस अपने भगवान विट्ठल से मिलने की चाह ।

भूख प्यास भुलाकर बस सब अपने विठ्ठल, पांडुरंग को स्मरण करते रहते है । और थका देने वाली पदयात्रा के बावजूद लाखों भक्त पंढरपुर पहुंचते है ।

भगवान है या नही, यह गूढ विषय है । हर कोई अपने अपने हिसाब से तर्क देते हैं । कोई पत्थर में भी भगवान को देखता है, तो कोई इन्सानों में । सभी की भावनाओं का आदर करना हम सबका कर्तव्य है । कई लोग इसे अंधविश्वास का नाम देते है, उनका तर्क होता है कि मीलों पैदल चलने से थोडी कोई भगवान मिलते है । परंतु मेरा अपना विचार है कि इन वारकरीओं को भगवान उनकी दिंडी में ही मिल जाते है । तभी तो प्रत्येक वर्ष ये ही दृश्य देखने को मिलता है ।

दिंडी में जब कई सक्षम अमीर व्यक्ति इन यात्रियों की सेवा करते है, कई सारे लोग जातपांत का भेद मिटाकर साथ में बैठकर भोजन करते हैं । ये भगवान की लीला नहीं तो और क्या है? जो अनेक रूपों में अपने भक्तों का कष्ट मिटाने तत्पर खड़े रहते हैं ।

इन वारकरीओं में ज्यादातर किसान होते है । हल जिनकी मंजिरा है तो बैलों के गले के घुंघरू भक्तीसंगीत है ।
गले में तुलसी माला और होंठों पर " विठ्ठल नाम." । दिंडी उनके लिए किसी उत्सव से कम नही होती ।





खैर, हवालदार ने जब दिंडी के वजह से रास्ता बंद है कहा तो मैं सोच में पड़ गया । पुना शहर मेरे लिए नया था । वहां के रास्तों से पुरी तरह से अनजान । क्या करुं, कुछ समझ में नही आ रहा था ।

तभी थोड़ी दुरी पर चाय का एक ठेला नजर आया । सोचा ठंड में एक कप चाय पीकर कुछ विचार करु ।

जा की रही भावना जैसी


गरमागरम चाय का प्याला हाथ में लिया ही था कि तभी एक बुजुर्ग पर मेरा ध्यान गया । ठंड से कांपते करीब सत्तर वर्षीय उस वृद्ध से मानवता के नाते मैंने पूछ लिया, ,"चाचा चाय लोगे?" बुजुर्ग ने गर्दन हिलाकर हां में जवाब दिया ।

चाय का घूंट भरते हुए मैंने फिर पुछा, "क्यों चाचा दिंडी में शामिल हो क्या? कहां से आ रहे हो?"

कांपते हुए बुजुर्ग बोला," हाँ बेटा, नासिक से आया हूं । विट्ठल दर्शन करने पंढरपूर जाऊँगा"।

मै अचरज से उन्हे देखते बोला ,"चाचा..... इस उम्र में आप दो सौ किलोमीटर पैदल चल कर आ रहे हो,  और आगे और भी  डेढ सौ किलोमीटर जाओगे ?"

" बेटा पिछले पचास सालों से, बिना चुके, हर साल ये दिंडी मै करता आया हूं, और जब तक जीवन है करता रहूंगा ।"

"परंतु चाचा अब तो आपकी काफी उम्र हो गयी है । क्या जरुरत है इतने कष्ट उठाने की?" मैने बुजुर्ग को कांपते देख अपना जैकिट उनको देते हुए कहां."इसे रख लीजीए । बहुत ठंड है.। और ये कुछ पैसे भी ।" मैंने उन्हें तीन सो रुपये भी दिए जो उन्होंने मेरे जोर देने पर रख लिए ।

फिर बोले "बेटा, हमें इतना कुछ देनेवाले भगवान के लिए हम इतना तो कर ही सकते है । और अपना विठ्ठल तो ऐसा दयालु है, जिन्हें भक्त प्रेम से विठूमाऊली भी पुकारते हैं । (माऊली का मतलब होता है माँ) तो माँ से मिलने तो बेटा किसी भी हाल में जा सकता है ना."

यह कहकर बुजुर्ग चलने लगे । मैने जाते जाते उन्हे फिर एक सवाल पूछ लिया "चाचा, इतने सालों से, विट्ठल दरबार, पंढरपुर जा रहे हो, क्या आपको कभी भगवान मिले ?"

चाचा ने हँसकर मेरे दिए जैकिट को हिलाया और बोले "मैं जब नासिक से निकला तो इतनी ठण्ड नहीं थी, इस वजह से गर्म कपडे लेने का मुझे ध्यान ही नहीं रहा, कुछ पैसे साथ में लाया था उनसे एक स्वेटर रस्ते में ख़रीदा था, मगर वो भी मुझे मुझ से ज्यादा किसी और जरूरतमंद को देना पड़ गया । क्योंकि उसको उस स्वेटर की मेरे से ज्यादा जरुरत थी ।"

जा की रही भावना जैसी

फिर उन्होंने उन तीन सो रुपयों को हाथ ऊँचा कर के दिखाते हुए कहा,  "मेरा विठ्ठल मुझे कभी अकेला नहीं छोड़ता,  हर मुसीबत में मिल ही जाता है." यह कहकर चाचा फिर से दिंडी में घुल मिल गए ।

मेरे हाथ अपने आप जुड़ गए थे । मैं कभी भी अपने साथ सो पचास रुपये से ज्यादा नहीं रखा करता था । क्योंकि जरुरत भी नहीं थी । मगर आज मेरी जेब में कल की मिली हुयी पगार ज्यों की त्यों थी, जो मैं घर में देना भूल गया था और घर पर भी किसी ने तनख्वाह के बारे में नहीं पूछा था ।

चाचा को दूर जाते हुए देखते देखते मैं यही सोच रहा था "शायद मुझे भी मेरा विठ्ठल मिल गया था, जिसे मैं ही नहीं पहचान पाया ।"

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लेखक : प्रदीप माने "आभाष"










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धन्यवाद
शिव शर्मा

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