Wednesday 30 December 2015

Ek Chithi Pyar Bhari - एक चिट्ठी प्यार भरी



एक चिट्ठी प्यार भरी



खिड़की के पास बैठा महेश बार बार अपने हाथ में पकड़े कागज को देख रहा था । तभी उसकी पत्नी चाय का कप लिए आ गयी । महेश की आँखों में आंसू थे जिनको वो बार बार छुपाने का प्रयास कर रहा था । लेकिन अपनी पत्नी सुनीता से नहीं छुपा सका ।

"क्या हुआ जी, किसकी चिट्ठी है ? मैं भी तो देखूं ।" पत्नी ने नाम जानने के लिए टेबल पर रखा खुला लिफाफा हाथ में लिया परंतु उस पर भेजनेवाले का नाम पता था ही नहीं ।

"क्या बात है जी, सब ठीक तो है ना?" महेश को जवाब ना देते देख उसकी जिज्ञासा और बढ़ गयी । थोड़ी चिंतित भी हो गयी । जवाब में महेश ने वो चिट्ठी उसे थमा दी और अनमना सा चाय के घूँट भरने लगा ।

सुनीता ने देखा, वो पत्र उसकी ननद राधा का था जो महेश से करीब दस वर्ष छोटी थी और जब महेश और वो कलकत्ता आये थे तब ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ती थी । अब तो बारहवीं में हो गयी होगी ।

साल भर पहले किसी बात पर पिता पुत्र में बहस हो गयी थी और बात इतनी बढ़ी की महेश अपनी पत्नी को लेकर कलकत्ता चला आया था और अपने एक मित्र के साथ छोटा सा काम शुरू कर दिया था । चिट्ठी पढ़ते पढ़ते सुनीता की भी आँखे भी भर आई ।

"सुनीता, गाँव चलने की तैयारी करो । मैं स्टेशन जा के टिकट आरक्षित करवा के आता हुं । हम कल परसों ही गाँव चलेंगे । मैंने क्रोध में आ के बहुत बड़ी गलती करदी थी, उसे सुधारेंगे ।"

"ठीक है जी" सुनीता ने इतना ही कहा । महेश कपड़े बदल कर स्टेशन के लिए निकल गया ।

उस वक्त आज की तरह इंटरनेट और फ़ोन का साधन नहीं था कि घर बैठे दो चार बटन दबाये और टिकट हाथ में । आरक्षित टिकट पानी हो तो स्टेशन ही जाना पड़ता था ।

रास्ते में महेश चिट्ठी के बारे में ही सोचता जा रहा था । राधा ने सही लिखा है, उस पत्र के अक्षर उसकी आँखों के आगे अक्षरशः आने लगे।

प्रिय भैया, प्रणाम ।
पूरा एक वर्ष हो गया आपको कलकत्ता गए हुए । इस बीच ना कोई चिट्ठी न खबर, ऐसी भी क्या नाराजगी । और वो भी अपने जन्मदाताओं से ।

आपकी और पिताजी की किस बात को लेकर अनबन हुयी मैं नहीं जानती । लेकिन इन सबमें माँ का और मेरा क्या कसूर जो आपने हमें भी बिसरा दिया । अपनी लाड़ली बहन को भी भूल गए ।



आप कहा करते थे ना कि जब तू ससुराल चली जायेगी मेरा तो बिलकुल भी मन नहीं लगेगा । मैं रोज तुमसे मिलने आऊंगा ।

लेकिन अभी तो मैं ससुराल भी नहीं गयी, फिर भी आप से मिले एक साल हो गया । पता नहीं आपका मन बहन के बिना कैसे लग रहा है । मैंने तो आपको राखी भी भेजी थी पर आपका कोई जवाब नहीं आया ।

पिताजी भी टूट से गए हैं । दुकान पर कम और घर पर ज्यादा रहते हैं इस वजह से दुकान का काम भी चौपट हो रहा है ।

माँ अक्सर रोती रहती है, आपके बारे में पिताजी से पूछती रहती है । पिताजी भी भीगी आँखों से कहते हैं कि वो हमें अब भूल गया है ।

तो क्या भैया आप सच में हमें भूल गए हो । क्या आप भूल गए हो कि पिताजी के साथ साईकिल पर स्कूल जाया करते थे । माँ बताती है की एक दिन तो पिताजी के पैर में चोट लगी थी फिर भी आपने साईकिल पर जाने की हठ की थी और दर्द के बावजूद पिताजी आपको साईकिल पर ले के गए थे........ ।

"स्टेशन आ गया बाबूजी" रिक्शा वाले की आवाज से महेश की तन्द्रा टूटी ।

उसको किराया चुकाकर महेश स्टेशन परिसर में घुसा । संयोग से वहीँ उसकी मुलाकात उसके एक परिचित विनोद से हो गयी ।





विनोद अपनी और अपनी पत्नी की टिकट रद्द करवाने आया था जो अगले दिन की ही थी । महेश ने कारण पूछा तो उसने बताया की कल अचानक उसकी पत्नी की तबियत ख़राब हो गयी थी और उसे हस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा ।

"ओह" महेश ने अफ़सोस जताया और पूछा, " अब कैसी है उनकी तबियत?"

"अभी वो ठीक है लेकिन डॉक्टर ने लंबी यात्रा करने से मना किया है । तुम कैसे स्टेशन आये हो आज" विनोद ने जवाब के साथ साथ सवाल भी कर दिया ।

"मैं गांव की टिकट बनवाने आया हुं, देखते हैं कल परसों की मिल जाए तो"

"अरे यार, बनवाने की क्या जरुरत है, मेरी टिकट पर तुम चले जाओ विनोद और मधु बनकर । अपनी उम्र में भी तो कोई फर्क नहीं है । ये टिकटें तुम्हारे काम आ जायेगी और मुझे मेरे पुरे पैसे मिल जायेंगे ।" विनोद ने हंसकर कहा ।

(उस समय गाड़ियों में टिकटों की इतनी जाँच पड़ताल भी नहीं होती थी जितनी अब होती है ।)

महेश को भी बात जंच गयी । और वो विनोद की टिकट लेकर घर आ गया ।

"कल की टिकट मिल गयी है सुनीता, रात की गाड़ी है, मैं कल दुकान के पार्टनर से हिसाब किताब करके शाम तक वापस आ जाऊंगा ।" बताते हुए वो अधलेटी अवस्था में कुर्सी पर बैठ गया । आँखे मूंदते ही मस्तिष्क में फिर से राधा के लिखे पत्र के अक्षर मंडराने लगे ।

......क्या आप ये भी भूल गए कि आपकी तबियत खराब होने पर माँ ने लगातार दो रातें आँखों में ही काट दी थी, पलक तक नहीं झपकाई थी जब तक आपका बुखार नहीं उतरा था । हो सकता है आपको ये याद हो की मेरा स्कूल का होमवर्क ज्यादा होने पर आप कर दिया करते थे । कितना प्रेम था आपको मुझसे । ये भी आप भूल गए?

खैर, मैंने ये चिट्ठी सिर्फ आपको ये बताने के लिए लिखी है कि पिताजी की तबियत दिन ब दिन ख़राब होती जा रही है । वे आपके घर छोड़ के जाने के पीछे अपने आप को कसूरवार समझ रहे हैं । इसी ग्लानि में वे घुट घुट कर वे आधे हो गए है और लगता है उम्र से पहले ही आपकी याद में जल्दी ही बिस्तर पकड़ लेंगे । अब जब वे अपनी अंतिम सांसे गिन रहे होंगे तब तो आप आओगे ना ? बताना भैया ।

आपकी बहन (या गुड़िया) राधा ।

" मैं आ रहा हुं मेरी बहना । पापा को और घुटने नहीं दुंगा । मैं आ रहा हुं गुड़िया, जल्दी ही आ रहा हुं ।" महेश नींद में भी बड़बड़ा रहा था और सुनीता के अधरों पर एक सुकून भरी मुस्कान थी ।


Click here to read "चिट्ठी आई है -  Chitthi aayi hai" by Sri Shiv Sharma


....शिव शर्मा की कलम से....







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