Sunday 6 December 2015

Roti - रोटी


रोटी - Roti


सुबह सुबह 7 बजे फ़ोन की घंटी बजी । मैं रजाई में दुबका नींद का आनंद ले रहा था । ऐसे में फ़ोन का बजना किसी देश पर शत्रु के आक्रमण जैसा लगा ।

खैर, खीजते हुए, रजाई से हाथ निकालकर मैंने फ़ोन उठाया । मेरे एक मित्र का फ़ोन था । मेरी खीज मिट गयी जब उसने बताया कि आज वो मेरे बैंक खाते में मेरे पैसे जमा करवा रहा है । कुछ उधार ले रखे थे उसने, वही वापस कर रहा था । अब बात रोकड़े मिलने की हो तो फिर खीज कैसी । उस से बात करते करते नींद उड़ चुकी थी ।

बिस्तर छोड़कर नित्यकर्मो से निवृत हुआ और बाहर का दृश्यावलोकन करने घर की बालकनी में आ गया ।  उफ्फ्फ.... हड्डियां कम्पा  देने वाली सर्दी, और ऊपर से आग में घी का काम कर रही थी हलकी हलकी चलने वाली हवायें ।

सड़क पर नजर डाली । कुछ लोग ही दिखाई पड़ रहे थे । कोट, स्वेटर, पहने, कान और मुंह ढके हुए । सर्दी का आलम ही ऐसा था । अचनाक सामने से सब्जी का ठेला ले के आते हुए करीब 60-65 वर्षीय एक बुजुर्ग पर नजर पड़ी ।

मैं उनको पहचानता था । मगर वो ठेले पर सब्जियां क्यों बेच रहे थे, उनकी तो मंडी में दुकान हुआ करती थी जिस पर उनका बेटा भी बैठा करता था । दुकान चलती भी अच्छी थी । क्योंकि पिता पुत्र दोनों का व्यवहार अच्छा था और फल सब्जी भी उत्तम दर्जे के बेचा करते थे ।

मुझे आश्चर्य हुआ, और सब्जियां भी लेनी थी सो निचे चला गया । तब तक वो बुजुर्ग घर तक पहुँच चुके थे । " बाबूजी सब्जियां लेंगे क्या, एकदम ताज़ी ताज़ी ।" कंपकंपाती आवाज में बुजुर्ग ने पूछा ।

"हां बाबा, दे दो । लेकिन आप इस उम्र में और इतनी ठण्ड के बावजूद घर से निकल पड़े? आपका बेटा नहीं है क्या जो इस उम्र में आपको काम करना पड़ता है ? ऐसे तो आपका स्वास्थ्य भी ख़राब हो सकता है ।"

"क्या उपाय बेटा, पेट के लिए करना पड़ता है । देर से निकलूंगा तो फिर ठेले पर रखी सब्जियां ताज़ी नहीं रहेगी । कौन खरीदेगा । ये बिकती है, चार पैसे मिल जाते हैं तो मैं और मेरी पत्नी दो वक्त की रोटी खा लेते हैं ।" बाबा कहते जा रहे थे ।

"ठण्ड तो कुछ दिनों की है बेटा लेकिन भूख तो रोज लगती है । रोटी के लिए कुछ तो करना ही पड़ेगा ना ।"

"हां, मगर आपका बेटा" मैनें पूछा ।

दो वर्ष पहले बेटे को पता नहीं क्या बिमारी हो गयी, बहुत इलाज करवाया, उसकी दवाएं और इलाज के लिए दूकान भी गिरवी रखनी पड़ी, इसके बावजूद भी वो नहीं बच पाया ।" कहते कहते बाबा की आँखे भीग आयी ।

"बहु अपने पीहर चली गयी,  घूम घूम के सब्जी बेचता हूं तो दो वक्त की रोटी का जुगाड़ हो पाता है, कुछ बचता है वो ब्याज में चला जाता है, ऐसे में गिरवी रखी दूकान को छुड़वाने की तो सोच ही नहीं सकता । पचास हजार रुपये कम भी तो नहीं होते ।"

मैं सुनते सुनते लगभग चेतनाशून्य हो चूका था । लेकिन मैंने मन ही मन एक निर्णय ले लिया था । बाबा ने सब्जियां थैली में डाल कर मुझे पकड़ाई । मैंने सब्जी के पैसे उन्हें देते हुए कहा "बाबा, क्षमा कीजियेगा, मुझे पता नहीं था । आपके साथ जो हुआ सुनके मुझे बहुत दुःख हुआ ।"


"अरे नहीं बेटा, ये तो विधि का विधान है । सुबह होती है तो रात भी होती है । और हर रात के बाद सुबह भी होती ही है । कभी ना कभी तो उपरवाला कोई चमत्कार दिखायेगा ।"

"हां बाबा, लेकिन फिलहाल आप ऊपर चलिए, मेरा घर भी देख लीजिये और मेरे साथ एक गरम गरम चाय पीजिए । बहुत सर्दी है । और हां, शाम को आप यहाँ आना, आपसे कुछ काम है ।"

चाय पीकर बाबा के शरीर में एक नई स्फूर्ति आ गयी थी । अपने ठेले को धकेलते हुए वो आगे निकल पड़े । मैं बालकनी से उन्हें जाते देखते हुए सोच रहा था । शायद सुबह सुबह मित्र का फ़ोन इन बाबा के लिए ही आया था ।

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...शिव शर्मा की कलम से...







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