Thursday 11 February 2016

Karz - कर्ज

कर्ज

पुरानी फिल्मों में अक्सर दिखाया जाता था कि गरीबी और हालात की चक्की में पिसते गांव के लोग साहूकार से कर्ज लेते और साहूकार उस पर ऐसा चक्रवर्ती ब्याज लगाता कि कइयों की तो जिंदगी गुजर जाती कर्ज चुकाते चुकाते लेकिन साहूकार की खाता बही में कर्जे की रकम ज्यों की त्यों रहा करती ।

बीस साल बाद जब नायक जवान हो जाता तब वो गांव वालों को साहूकार के उस कर्ज रूपी दलदल से बाहर निकालता ।

वो फ़िल्में थी, फ़िल्म में एक नायक होता था जो गांव के किसानों की गिरवी पड़ी जमीन साहूकार के चंगुल से निकाल लाता था, परंतु असल जिंदगी में वो नायक पता नहीं क्यों नहीं आ पाता है । हकीकतन ऐसा होता भी नहीं है ।




क्योंकि आज भी हमें अक्सर पढ़ने सुनने को मिलता है कि
कर्ज के बोझ में डूबे किसानों ने आत्महत्या कर ली । किसान तो बेचारे रोज कहीं ना कहीं इस कर्ज के चलते जिंदगी से थक कर दुनिया से जा रहे हैं ।

एक किसान कर्ज लेता है इस उम्मीद में कि अच्छी फसल होगी तो कर्ज भी चूक जाएगा और अगले साल का जुगाड़ भी हो जायेगा । दुर्भाग्यवश उस पर किस्मत की मार पड़ जाती है अतिवृष्टि या सूखे के रूप में । बाद में कर्ज की रकम तो दूर, उसका ब्याज भी चुकाना उसके लिए भारी हो जाता है । कर्ज के बोझ में डूबा वो अपने परिवार को रोटी के लिए तरसता देखने को मजबूर हो जाता है और एक दिन उसकी हिम्मत जवाब दे जाती है ।

किसान तो अपने अच्छे कल के सपने के लिए कर्ज लेता है मगर आजकल देखा गया है की कई लोग हर छोटी छोटी चीज के लिए कर्जा ले लेते है ।

अगर किसी व्यापार या घर खरीदने के लिए कर्ज लिया है तो फिर भी बात समझ में आती है । परंतु केवल झूठे लोक दिखावे के चक्कर में कई लोग इस कर्ज रूपी भंवर में फंस जाते हैं । किसी भी बैंक में आसानी से उपलब्ध जो है । बाद में भले ही हजारों पापड़ बेलने पड़े मासिक किश्तों को चुकाने में ।

आजकल तो बड़ी बड़ी कंपनियां भी अपना माल "शुन्य प्रतिशत ब्याज दर" का प्रलोभन दिखाकर ग्राहकों को बेच रही है । जिनमें अधिकतर मध्यम वर्गीय श्रेणी के लोग ही होते है, जो इस शुन्य प्रतिशत के भ्रम में आकर बहुत सी ऐसी वस्तुएं भी खरीद लाते हैं, जिनकी उनको कोई खास जरुरत भी नहीं होती ।

बस इस वजह से कार ले आये क्योंकि उनका कोई रिश्तेदार या परिचित कार लाया है । उसने खरीद ली तो मैं क्यों पीछे रहूं । बाद में फिर वही कमाई, जिसमे उसका घर खर्च आराम से चल जाया करता था, कम पड़ने लगती है, क्योंकि "कार" की मासिक किश्तें भी तो भरनी पड़ रही है अब ।

इस बीच अगर कोई और बड़ा खर्च सामने आ जाए तो वो फिर भागता है बैंक की तरफ । एक नया कर्ज लेने के लिए । जरूरतें आती रहती है और ये सिलसिला चलता रहता है, भविष्य के साथ साथ वो अपना वर्तमान भी बिगाड़ लेता है ।

मित्रों कर्ज लेना बुरी बात नहीं है, और कई दफ़ा तो हम मजबूर भी हो जाते हैं कर्जा लेने को । लेकिन बुरी बात तो तब है जब गैर जरुरी, बेमतलब कर्जे लिए जाए ।



मेरे मित्र ने कार खरीदी तो मैं भी खरीदूं, पडौसी बड़ा वाला टेलीविजन लाया है तो मैं क्यों पीछे रहुं जब टी वी किश्तों पर मिल रहा है, या किसी परिचित ने अपने घर में नया फर्नीचर बनवाया है तो भला मैं भी क्यों न बनवाऊं । भले ही कर्ज लेकर । अब इस झूठी शान के लिए अपने आप को कर्ज रूपी दलदल में डुबोना कहां की समझदारी है ।

मित्र ने अगर कुछ नई खरीद दारी की है तो हो सकता है, और होता भी है, कि वो मित्र उस खर्चे को करने में आर्थिक रूप से सक्षम था ।



इसलिए दोस्तों, जहाँ तक हो सके इस कर्ज रूपी मगरमच्छ से खुद को बचाके रखना । सच मानो, नींद बड़े चैन की आएगी, और याद रखना "खर्चे कम तो कर्जे कम ।"

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जय हिन्द

***शिव शर्मा की कलम से***

3 comments:

  1. Sharmaji Mujhe bhi chahiye tha loan, nahi lu kya ?

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  2. Baat to achi hai sir per kya kare majboori sab kra dete hai

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  3. Sahi baat hai. Jahan tak ban pade karz nahi Lena chahiye

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