Wednesday 3 February 2016

लापरवाह - Laparwah

लापरवाह

"अरे दिपक, तुम तो आज टूर पर कहीं जाने वाले थे ना ? कब की ट्रेन है तुम्हारी ?" राजेश ने चेताया तो दोस्तों के साथ कैरम खेलते दिपक को जैसे होश आया ।

"छह बजे की" उसने बताया और फुर्ती से उठा । फिर जल्दी जल्दी सामान बैग में डाला ।

"छह बजे की गाड़ी है और तुम अभी तक यहीं हो । पता है ना यहां से स्टेशन जाने में भी कम से कम एक सवा घंटा लगेगा । और तुम सामान भी अब पैक कर रहे हो । इतनी लापरवाही भी क्या काम की ।" राजेश ने थोड़ा गुस्सा सा दिखाते हुए उसे कहा ।

दिपक कुछ नहीं बोला और अपनी बैग जमाने में लगा रहा । निकलते निकलते साढ़े चार बज गयी । अब तो दिपक भी थोड़ा चिंतित हो उठा । रह रह के उसके दिमाग में सवाल उठ रहे थे ।


पता नहीं खाली टैक्सी समय से मिलेगी या नहीं, मिलेगी तो रास्ते में कितना ट्रैफिक होगा, अच्छा होता अगर और आधा घंटे पहले निकल जाता, केरम खेलते खेलते समय का पता ही नहीं चला, हे भगवान सहायता करना।

आदमी भी कितना अजीब होता है । लापरवाही खुद करता है और फिर भगवान को गुहार लगाता है, "हे भगवान, आज संभाल लेना, आगे से ध्यान रखुंगा" जैसे प्रण करता है और अगली बार फिर वो ही चीज दोहराता है ।

सौभाग्य से निचे उतरते ही उसे टैक्सी मिल गयी और टैक्सी वाला स्टेशन चलने को भी तैयार हो गया ।

दिपक ने चैन की सांस ली व टैक्सी में बैठते हुए टैक्सी वाले से गुजारिश की कि भैया मैं लेट हो गया हुं थोड़ा जल्दी पहुंचाने की चेष्टा करना । टैक्सी वाले ने जी बाबूजी कहकर टैक्सी आगे बढ़ा दी ।

वो कंपनी के कुछ क्रेताओं से मीटिंग के लिए नागपुर जा रहा था । कल ऑफिस में बैठ कर कंप्यूटर पर उसने मीटिंग के लिए कुछ बिंदु भी तैयार किये थे और सबके प्रिंटआउट ले लिए थे जो वो ट्रेन में दुबारा पढ़ने वाला था ।

अचानक उसे याद आया तो उसने अपनी बैग में देखा । उन कागजात की फ़ाइल बैग में थी ही नहीं । जल्दीबाजी में उसे वो घर पर ही भूल आया था । उसने फिर अपने आप को कोसा, काश और आधा घंटे पहले......  और फिर वही "हे भगवान, संभालना ।"


टैक्सी फर्राटे से दौड़ रही थी । हालांकि बीच बीच में ट्रैफिक की वजह से रफ़्तार थोड़ी कम भी पड़ जाती थी मगर फिर भी शायद ड्राईवर होशियार था इसलिए टैक्सी लगातार चल रही थी ।

ये पता होते हुए भी की अभी स्टेशन दूर है, दिपक बार बार उसे पूछ रहा था, "भैया और कितनी दूर है स्टेशन, हम समय पर पहुंच तो जाएंगे ना ।"

"बाबूजी, वो तो हम कैसे कह सकते हैं, रास्ता खुला मिला तो अभी कम से कम आधा घंटा और लगेगा ।"

दिपक ने घड़ी देखी, सवा पांच बज चुके थे । उसकी धड़कनें भी बढ़ने लगी । उफ़्फ़... काश थोड़ा और पहले निकला होता ।

बीच में दो चार जगहों को छोड़कर बाकि रास्ते में ज्यादा ट्रैफिक नहीं मिला । फिर भी स्टेशन परिसर में घुसते घुसते समय पांच बज कर पचास मिनट हो गया था ।

दिपक ने जल्दी से टैक्सी का भाड़ा चुकाया और भागता सा स्टेशन में घुसा । उसे ये भी पता करना पड़ा कि उसकी ट्रेन किस प्लेटफार्म पर लगी है ।

"अरे बड़ी जल्दी आ गए, भागो भाई 5 नंबर प्लेटफार्म की तरफ, गाड़ी चलने वाली है" पूछताछ केंद्र वाले ने लगभग झिड़कने वाले अंदाज में उसे बताया । लेकिन दिपक के पास ये सब समझने का वक्त ही कहां था, वो तो तोप से छूटे गोले की तरह प्लेटफार्म की तरफ भागा ।


गाड़ी प्लेटफार्म से सरकने लगी थी । गिरते पड़ते जैसे तैसे दिपक गाड़ी के पिछले डब्बे में चढ़ने में कामयाब तो हो गया लेकिन बुरी तरह हांफ रहा था । डब्बे के अन्य यात्री उसे हास्यास्पद नजरों से देख रहे थे । और दिपक हांफते हुए सोच रहा था काश, और आधा घंटे पहले.....।

खैर येन केन प्रकारेण दिपक को तो गाड़ी मिल गयी लेकिन बहुत बार थोड़ी सी लापरवाही की वजह से बहुतों की बहुत सी गाड़ियां छूट भी जाती है ।

दोस्तों, ये गाड़ी तो एक उदहारण थी । हमारे जीवन में और भी बहुत सारी बातें या काम होते हैं जो अक्सर हमारी थोड़ी सी लापरवाही की वजह से बनते बनते रह जाते हैं, परेशानियां उठानी पड़ती है सो अलग । बाद में हम सोचते हैं कि काश ये कार्य मैं और थोड़े समय पहले कर लेता । काश इस काम को मैं कल पर नहीं टालता । इत्यादि इत्यादि ।

इसीलिए शायद ये दोहा रचा गया था कि :

"काल करे सो आज कर, आज करे सो अब,
पल में प्रलय होयेगी, बहुरि करेगो कब"

जो करना है अगर सही समय पर किया जाये तो उसके परिणाम हमेशा सुखद निकलते हैं । अतः आप भी उपरोक्त दोहे को अपने जीवन में उतारें और शांतिपूर्ण जीवन का आनंद लें ।

फिर मिलेंगे मित्रों । कुछ नए विचारों के साथ । अभी नमस्कार ।

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जय हिन्द

***शिव शर्मा की कलम से***




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