Monday 4 April 2016

Virah Ki Peer

विरहा की पीर
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रात ढलती रही रात भर


नमस्कार साथियों । मुम्बई लोकल ट्रेन पर लिखा मेरा ब्लॉग आपने पढ़ा, आशा है आपको पसंद आया होगा । मुझे प्रसन्नता होती है जब मैं देखता हुं की बहुत से मित्र मेरे बाकी के पहले वाले ब्लॉग भी पढ़ते रहते हैं । अपना स्नेह युं ही बनाये रखना ।

आज मैं एक नया प्रयास कर रहा हुं "विरह" पर गजल लिखने का । एक ऐसी नारी की मन की व्यथा, जिसका पति मजबूरियों के चलते उससे दूर कहीं अन्यत्र रहता है और महीनों सालों के बाद कुछ दिन के लिए आता है ।

अपनी सहेलियों के द्वारा ठिठोली करने पर उसके मन की पीर जब बाहर आती है तो वो अपनी सखियों से क्या क्या बताती है । उसी व्यथा को शब्दों धागों में पिरो कर इस ग़ज़ल को लिखने का प्रयास किया है । आशा है मेरी अन्य रचनाओं की तरह इसे भी आपका आशीर्वाद मिलेगा ।

रात ढलती रही रात भर
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शमा जलती रही रात भर
आँखें बहती रही रात भर

शनै शनै चाँद ढलता गया
रात ढलती रही रात भर

जिस रोज पिया परदेस गए
मैं सिसकती रही रात भर

कैसे बताऊं पीर विरह की सखी
ये आग जलती रही रात भर



सन्नाटे में कोई आहट सी हुयी
युं ही सहमति रही रात भर

अरसे बाद उनका ख़त आया
बस पढ़ती रही रात भर

वो बीते पल, वो बातें वो यादें
याद करती रही रात भर

दिल का चैन तो वो साथ ले गए
नींद उड़ती रही रात भर

कभी दायें कभी बायें
करवटें बदलती रही रात भर

चांदनी चुभने लगी शूल की तरह
तनहाई डसती रही रात भर

उनकी जुदाई में मैं मोम बन गयी
और पिघलती रही रात भर

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मेरा ये प्रयास कैसा लगा दोस्तों । बताना । कल फिर मिल ही रहें है एक नयी रचना के साथ ।

Click here to read आ जाओ भैया Written by Sri Pradeep Mane


जय हिन्द

***शिव शर्मा की कलम से***








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