Sunday 29 May 2016

Dar Lagta Hai - डर लगता है

Dont Break Me
(Image Source http://www.123rf.com/)

DAR LAGTA HAI 

 डर लगता है





जिस तेजी से जमाना बदल रहा है और हर कोई येन केन प्रकारेण बस एक दूसरे से आगे बढ़ने की ही हौड़ में लगा है, डर लगता है आने वाले वक्त में इस आगे बढ़ने की दौड़ में कहीं कुछ ऐसा पीछे ना छूट जाए की बाद में आदमी को एक तकलीफदेह पछतावा रहे ।

आज हर कोई एक दूसरे को शक की नजर से ही देखता है । पुरानी प्रीत ना जाने कहां खो गई । सैंकड़ों तरह के डर आदमी के मन में समाये हुए हैं । इसी को मद्देनजर रखते हुए एक ग़ज़ल लिखने का प्रयास किया है । आशा है आप की तारीफों का तोहफा जरूर मिलेगा ।

डर लगता है


हंसने हंसाने से डर लगता है,
कहीं आने जाने से डर लगता है,

भरोसा नहीं है किसी को किसी पर भी,
मतलबी इस ज़माने से डर लगता है,

डर लगता है डरावने काले अंधकार से,
जुगनुओं के जगमगाने से डर लगता है,

सुकूँ देती है बारिश की बरसती बूंदें,
बिजलियों के कड़कड़ाने से डर लगता है,

क्या पता कब कौन कैसे बुरा मान जाए,
भरी महफ़िल में मुस्कुराने से डर लगता है,

मुहब्बतों की जड़ें भी कमजोर हो गई,
प्रेम की पौध उगाने से डर लगता है,



(Image Source - https://drawception.com/game/AYjNCANSGM/thats-pretty-racist-man/)

टूट के बिखर ना जाए रिश्तों की कड़ियां,
दिल की बात जुबां पर लाने से डर लगता है,

दबे हैं बरसों से जो राज कहीं गहरे में,
छुपाने में डर लगता है, बताने से डर लगता है,

दीमक लग गई हौसलों के महलों में,
छतों को ऊंचा उठाने से डर लगता है,

बनते बनते भी अक्सर बिगड़ ही जाते हैं,
रोज नए ख़्वाब सजाने से डर लगता है,

तेवर कुछ ज्यादा ही तीखे हैं आफ़ताब के,
परिंदों को पंख फ़ैलाने से डर लगता है,

फिजाओं में घुल गया है ज़हर नफरतों का,
बच्चों को भी खिलखिलाने से डर लगता है,

देख कर हालात इस बेदर्द दुनिया के "शिव",
खुद से नजर मिलाने से डर लगता है ।।



जय हिन्द



***शिव शर्मा की कलम से***

आपको मेरी ये रचना कैसी लगी दोस्तों । मैं आपको भी आमंत्रित करता हुं कि अगर आपके पास भी कोई आपकी अपनी स्वरचित कहानी, कविता, ग़ज़ल या निजी अनुभवों पर आधारित रचनायें हो तो हमें भेजें । हम उसे हमारे इस पेज पर सहर्ष प्रकाशित करेंगे ।.  Email : onlineprds@gmail.com

धन्यवाद


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Sunday 22 May 2016

Jeevan Ki Daastan


JEEVAN  KI  DAASTAN


जीवन की दास्तान



मूलतः मराठी में लिखने वाले कवी श्री प्रदीप माने, जिनकी कुछ रचनायें आप इसी कॉलम में पढ़ चुके हैं, की एक और रचना "जीवन की दास्तान" आपके लिए प्रस्तुत है ।

उम्मीद है आप इस रचना को भी अपना भरपूर स्नेह देंगे ।

जीवन की दास्तान
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जीवन की है एक अलग ही दास्तान,
कोई घर तो कोई रोटी के लिए परेशान,

बहाकर पसीना जो करता है खूब मेहनत,
किस्मत फिर भी नहीं होती मेहरबान,

वक्त नहीं जिनको मौसम का लुत्फ़ लेने को,
उनके घर ही मिलते हैं बहारों के निशान,



जिसकी एक झलक से कई निहाल हो गए,
बर्बाद भी कर गई उसकी एक मुस्कान,

जीने के लिए कुछ लोग भुला बैठे वादे कसमे,
किसी ने सजा रखी है कई यादों की दूकान,

कोई डूबा हुआ है ग़मों की गहराइयों में,
कोई छुपा रहा है, सजा के चेहरे पर मुस्कान,


कई मशरूफ है लाचारों को दबाने में,
कम ही मिलते है यहां कला के कद्रदान,

जिंदा लोगों पर "आभास" मुर्दों की हुकूमत देखी,
बस्तियों के बीच देखे अनेकों कब्रिस्तान,

जीवन की है एक अलग ही दास्तान,
कोई घर तो कोई रोटी के लिए परेशान ।।

Click here to read "आ जाओ भैया" by Sri Pradeep Mane


Jeevan Ki Daastan
प्रदीप माने "आभास" द्वारा रचित











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शिव शर्मा

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Saturday 21 May 2016

Asar


असर



आपका ह्रदय से धन्यवाद दोस्तों जो आपने "तुम्हारी यादें" ग़ज़ल इतनी पसंद की । यकीन मानिए आपका ये स्नेह संजीवनी का सा काम करता है । आगे भी इसी तरह अपना प्रेम लुटाते रहें, मैं कोशिश करूँगा और अच्छा लिखने की ।

आज भी आपके लिए एक पुराने पन्नों से छांटी हुई छोटी सी ग़ज़ल ले के आया हुं, इसी उम्मीद के साथ कि इसे भी आप अपना भरपूर समर्थन देंगे । "असर" भी मैंने शायद 7-8 वर्ष पूर्व ही लिखी थी, मुझे तो ये काफी अच्छी लगी, देखते हैं आप इसे कितना पसंद करते है ।


असर
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संभल के रहना किसी को खबर ना हो जाए,
जरा सी बात का बवंडर ना हो जाए,

सुना है दीवारों के भी कान होते हैं,
इधर की बात उधर ना हो जाए,

सुहानी रात है दिल की बात करलो,
कशमकश में ही सहर ना हो जाए,

गिले शिकवों का संगीत कम ही बजे,
मुहब्बत की धुन कहीं बेअसर ना हो जाये,

ख्वाब ऊँचे मगर हसरतें कम रखना,
जिंदगी उलझनों का समंदर ना हो जाए,

दिल में जज्बातों को सदा ज़िंदा रखना,
ख़्वाबों का महल खंडहर ना हो जाए,

अपनी हदों में रहे तो ही अच्छी लगती है,
बे-लगाम सागर की लहर ना हो जाए,

ना जाने कब बरसेंगे आसमान से बादल,
सुखी जमीन मौला, बंजर ना हो जाए,

तूफानों को या रब जरा दूर ही रखना,
तेरा बन्दा कोई घर से बेघर ना हो जाए,

ख़ौफ़ जगाता है चिमनियों से उठता धुंआ,
शहर का हवा पानी कहीं ज़हर ना हो जाए,

ना जाने क्या घुला है इस आबोहवा में
बदन बीमारियों का घर ना हो जाए,

मिलते मिलाते रहना हंसते हंसाते रहना,
जिंदगी शिकायतों में बसर ना हो जाए,

रंग बदलना तो "शिव" फितरत है ज़माने की,
तुम पर भी इसका, असर ना हो जाए ।।
          ****************

Click here to read "यादें" By Sri Shiv Sharma


जय हिन्द



***शिव शर्मा की कलम से***

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Thursday 19 May 2016

Tumhari Yaade


TUMHARI YAADE - तुम्हारी यादें


नमस्कार दोस्तों । कल युं ही घर पर बैठा पुराने कागजातों को देख रहा था तो नजर पड़ी सन् 2007 में लिखी इस ग़ज़ल पर, सोचा आपके साथ इसे साझा कर लेता हुं ।

उम्मीद है आपको ये ग़ज़ल भी पसंद आएगी ।




तुम्हारी यादें
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क्या कहुं कितना सताती है तुम्हारी यादें,
हर वक्त तुम्हारी याद दिलाती है तुम्हारी यादें

दिन तो गुजर जाता है जीवन की भागदौड़ में
शाम ढलते ही, आ जाती है तुम्हारी यादें,

यूं तो गुजर जाते है तूफ़ान भी हवा की तरह
पुरवाई चलते ही, आ जाती है तुम्हारी यादें,



बहुत समझाता हुं समझता ही नहीं दिल,
और जरा समझते ही, आ जाती है तुम्हारी यादें,

बदल तो डालूं यादों के इस मौसम को मगर,
मौसम बदलते ही, आ जाती है तुम्हारी यादें,

तन्हाइयों में तो जाहिर है सताती ही रहती है,
महफ़िलें सजते ही, आ जाती है तुम्हारी यादें,

नींद आती नहीं और ख्वाबों पे कब्ज़ा तेरा
आँख लगते ही, आ जाती है तुम्हारी यादें,

लोग कहते हैं "शिव" कुछ लिखा करो,
कलम पकड़ते ही, आ जाती है तुम्हारी यादें ।।



कल फिर एक छोटी सी ग़ज़ल के साथ मिलते हैं दोस्तों ।

जय हिन्द











***शिव शर्मा की कलम से***

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Click here to read "तुम ना बदलना" Written by Sri Shiv Sharma


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Saturday 14 May 2016

Naseeb Apna Apna-Part II - नसीब अपना अपना (भाग-2)

NASEEB APNA APNA (PART - 2) - नसीब अपना अपना (भाग-2)


कल आपने पढ़ा कि रूपेश को बड़े लाड़ प्यार से खुद कष्ट सहकर भी सुनीता ने पाल पोसकर बड़ा किया, उसे अच्छी शिक्षा दिलवाई, सूंदर सी लड़की से उसकी शादी करवाई और जब सुनीता के आराम करने के दिन आये तो अचानक कुछ ऐसा हुआ जिसकी किसी ने कल्पना ही नहीं की थी । क्या हुआ था ऐसा, जानने के लिए पढ़िए "नसीब अपना अपना (भाग-2) ।" ..........

..... लेकिन फिर वो हुआ जिसकी किसी ने कल्पना ही नहीं की थी, विशेषतया सुनीता ने तो ऐसा सपने में भी नहीं सोचा होगा कि ऐसा भी हो सकता है ।

पिछले कुछ दिनों से बहु कुछ चिड़चिड़ी सी हो गयी थी, रूपेश भी माँ को लगभग अनदेखा करने लग गया था ।

दरअसल बहु रूपेश के कान भरने लग गई थी और माँ के साथ नहीं रहने की जिद्द करने लग गई थी । जबकि सुनीता उसे बहु नहीं, बेटी की तरह रखती थी । हां कई जगह वो उसे उसके ही भले के लिए टोकती भी थी यदि बहु कहीं गलत होती थी ।


बहु को ये सब अपनी आजादी में बाधा लगती थी और वो नमक मिर्च लगाकर रूपेश को कुछ इस तरह जताती जैसे उसकी माँ उसे बहुत परेशान कर रही थी ।

कहते हैं ना कि एक झूठ को यदि सौ बार बोला जाए तो वो सच प्रतीत होने लगता है । इसी तरह रुपेश भी शायद उसकी बातों में आ गया था तभी तो उसने एक दिन माँ से कहा,

" माँ, कुछ कारणों से तुम्हारी बहु अलग रहना चाहती है, क्योंकि तुम्हारे यहाँ होने से वो अपने आप को कुछ बंधा हुआ सा महसूस करती है, अतः मैंने ये तय किया है कि तुम्हे एक कमरा किराये पर ले के दे देता हूँ, घर पर महीने का राशन और हर महीने कुछ रुपये मैं तुम्हें देता रहूँगा, मेरा मन तो नहीं मान रहा पर माँ, पर तुम्हे मेरी और अपनी बहु की खातिर इतना तो करना पड़ेगा । फिर कुछ ही दिनों में मैं तुम्हारी बहु को समझा बुझा कर मना लूंगा और तुम्हे वापस ले आऊंगा ।"

सुनीता को तो जैसे सांप सूंघ गया, वो अविश्वसनीय नजरों से रूपेश का मुंह देखने लगी । उसको बिलकुल भी यकीन नहीं हो रहा था कि रूपेश, उसका रूपेश, ये बात कह रहा है ।

भीगी आँखों से लगभग याचना भरी निगाहों से अपने बेटे की तरफ देखते हुए उसने थोडा विरोध और फिर मिन्नतें भी की थी कि वो घर के ही किसी कोने में चुपचाप पड़ी रहेगी, परंतु बहु ने स्पष्ट कह दिया की यहाँ या तो आप रहोगी या मैं ।


अब सदियों से यही तो होता आया है कि बच्चों की खातिर माँ बाप हमेशा समझोता करते आये हैं, सुनीता ने भी किया और वो उन दोनों को स्वतन्त्र छोड़ कर अलग रहने के लिए बेटे के साथ चल पड़ी । परंतु ये क्या.......! बेटा तो उसे वृद्धाश्रम में ले के आया था ।

"माँ बस कुछ दिन, मैं तुम्हारे लिए एक अच्छे घर की तलाश करता हूँ तब तक आप यहाँ रहो । फिर में आपको यहाँ से ले जाऊंगा ।"

"और रूपेश वहां से ऐसे भागा था जैसे उसे डर हो कि कहीं मैं उसके साथ वापस ना चल पडूँ । आज 12 महीने हो गए हैं, ना बेटा आया ना बहु और ना ही उनका कोई फ़ोन ।" कहते कहते सुनीता का गला रुन्धने लग गया । उसके आसपास बैठी अन्य महिलाओं की आँखें भी नम थी क्योंकि उन सबकी भी लगभग यही कहानी थी ।

"जिस बेटे को इतने लाड प्यार और कठिनाइयों से पाला वो ऐसा करेगा, कभी सोचा नहीं था । लेकिन मैं जानती हूँ वो आएगा, और मुझे यहाँ से ले के जाएगा" सुनीता ने आरामदायक कुर्सी पर सर टिकाकर आँखें मूंद ली । अगले कुछ पलों तक कमरे में ख़ामोशी छाई रही ।

फिर एक अन्य औरत ने सहानुभूति से सुनीता के कंधे पर हाथ रखा और कहा "ये ही दुनिया है सुनीता बहन, अपने अपने नसीब है। अब तो हमें यहीं जीना है और यहीं मर जाना है, हम मरेंगे तब हो सकता है हमें हमारा बेटा लेने आ जाये, अगर उसमे अपनी माँ के प्रति थोडा सा भी सम्मान बाकी है तो ।"

वो औरत थोड़ी क्रोधित हो चुकी थी और बोलती ही चली गई ।


"और मैं तो चाहती हुं कि वो अपनी पत्नी को भी यहां अपने साथ ले के आये और उसे बताये कि भविष्य में कहीं उसका बेटा भी उसके साथ यही बर्ताव करे तो उसे कैसा महसूस होगा, भगवान ना करे ऐसा हो परंतु कहावत है ना कि करंता सो भोगन्ता । जो जैसा करता है उसे वैसा भोगना भी पड़ सकता है । सही कह रही हुं ना सुनीता बहन ?"

सुनीता को कोई जवाब देते ना देख उस महिला ने उसे सुनीता बहन..... सुनीता बहन..... आवाज देकर थोड़ा हिलाया तो सुनीता की गर्दन एक तरफ लुढक गयी । उसके प्राण पखेरू उड़ चुके थे ।

"अब शायद इसका बेटा इसे लेने आएगा" पीछे से किसी महिला की रुंधी हुई सी धीमी सी आवाज आई । वहां मौजूद सभी महिलाओं की आँखें झर झर बहने लगी थी ।

Click here to read "फिर बच्चा बन जाऊं" written by Sri Shiv Sharma


****शिव शर्मा की कलम से****









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Thursday 12 May 2016

Naseeb Apna Apna (Part - 1) - नसीब अपना अपना (भाग-1)





NASEEB APNA APNA (PART - 1) - नसीब अपना अपना (भाग-1)



"चलो बिट्टू, खाना खाने का वक्त हो गया, खाना खाओ ।" माँ ने प्यार से अपने 7 वर्षीय लाल रूपेश, जो कि उस वक्त सो रहा था, के सिर पर हाथ घुमाते हुए कहा । रूपेश ने बालसुलभ चंचलता वाले अंदाज में उहुँ कहते हुए ना में गर्दन हिलाई और करवट बदल के सोने की चेष्टा करने लगा ।

माँ ने फिर उसके माथे को चूमते हुए गुदगुदी की तो वो खिलखिलाकर हंस पड़ा लेकिन उठा नहीं और बोला "ममा मुझे भूख नहीं है, मुझे और सोना है ।"

"ठीक है, 5 मिनट और सो जाओ, फिर हम खाना खाएंगे, ठीक है ना" माँ ने जैसे उसकी बात रखने के लिए हार मान ली ताकि वो उठ के ख़ुशी ख़ुशी खाना खा लेवे । और 5 मिनट की बजाय आधे घंटे बाद माँ ने उसे उठाया । फिर खूब मिन्नतें कर कर के उसे खाना खिलाया, उसकी स्कूल का होमवर्क करवाया ।

साथ ही साथ अपना सिलाई का काम भी कर रही थी । ये उसका लगभग रोज का काम था । रूपेश काफी चंचल था । दो वर्ष पहले एक दुर्घटना में रूपेश के पिता की असमय मृत्यु हो गई थी ।




उनकी बीमा के कुछ पैसे मिले थे जो पर्याप्त तो नहीं थे मगर उन पैसों की मदद से रूपेश की स्कूल फीस भरने के बाद भी कुछ पैसे बचे उस से उसकी माँ एक सिलाई मशीन ले आई थी।

वो महिलाओं के कपड़ों की सिलाई का काम जानती थी और सिलाई का काम भी काफी सफाई से करती थी जिस वजह से कुछ ही दिनों में मोहल्ले की लगभग सभी औरतें और बहुत सी लड़कियां उस से कपडे सिलवाने लगे थे । जिसकी आमदनी से वो अपना घर खर्च और रूपेश की शिक्षा का खर्च बड़ी आसानी से उठा लेती थी ।

समय गुजरता गया । रूपेश भी समयानुसार बड़ा होता गया, पढ़ाई में होशियार था । पढाई के लिए जो भी खर्च होता था उसकी माँ सुनीता कैसे भी जोड़ तोड़ करके व्यवस्था कर दिया करती थी । यहाँ तक कि तब उसने अपना घर भी गिरवी रख दिया था जब रूपेश को बड़ी कॉलेज में दाखिला करवाना था । पढाई महँगी थी पर सुनीता ने रूपेश के भविष्य के लिए कष्ट सहकर भी उसका दाखिला करवाया था ।

अंतिम वर्ष की परीक्षाओं से पहले कॉलेज में कुछ कंपनियों के प्रतिनिधि अपनी कंपनी में कर्मचारियों की भर्ती हेतु विद्यार्थियों का साक्षात्कार लेने आये थे और सौभाग्य से एक अच्छी कंपनी में रूपेश का अच्छे पद पर चयन भी हो गया था ।

उस दिन ख़ुशी ख़ुशी रूपेश ने माँ को जब ये सब बताया तो वो तो ख़ुशी के मारे पागल ही हो गई । उस दिन घर में पकवान बने थे ।

अंतिम वर्ष की परीक्षा का परिणाम भी रूपेश के पिछले परिणामों की तरह अत्यंत सुखद था ।


वो प्रथम श्रेणी में पास हुआ था । माँ के गले से लगकर ख़ुशी से रो पड़ा था और कहा, "माँ अब तुम्हे काम करने की आवश्यकता नहीं रहेगी । मैं कमाऊँगा, तुम आराम करो।"

माँ ने कहा "आराम तो बहु आने के बाद होगा बेटा, अब तू विवाह के योग्य हो गया है, अब मैं तो जल्दी से जल्दी बहु लाऊंगी" ।

"तुम भी माँ, अभी मेरी उम्र ही क्या हुई है" रूपेश ने दिखावटी लज्जा दिखाते हुए कहा और बाहर निकल गया । माँ भी मुस्कुरा उठी ।

समय बीतते समय नहीं लगता । पदोन्नति पा पा कर रूपेश काफी ऊँचे पद पर आ चूका था । अब वो बड़ा अफसर बन चूका था । कर्ज चुकाकर वो अपना घर भी मुक्त करवा चूका था जो माँ ने उसके ही नाम करवा दिया था ।

कुछ समय पश्चात् रुपेश का विवाह एक सूंदर सी लड़की के साथ हो गया । उसके और कोई रिश्तेदार तो थे नहीं । दादा दादी और नाना नानी भी बहुत पहले स्वर्ग सिधार चुके थे ।

किसी दूर के रिश्तेदार ने ये रिश्ता करवाया था । सुनीता को देख कर तो ऐसा लगता था जैसे उसने अपने जीवन की अनमोल चीज पा ली थी ।

रूपेश के मना करते करते भी वो बहु के कामों में हाथ बंटाया करती थी । रूपेश कुछ कहता तो वो हंसकर कहती कि अगर काम नहीं करुँगी तो शरीर में चर्बी बढ़ने लग जायेगी और मोटी हो जाउंगी, सो थोडा बहुत काम कर लेती हूँ । वैसे सारा काम बहु ही तो करती है ।

रूपेश की शादी के बाद हंसी ख़ुशी पांच साल गुजर गये, हालाँकि कई बार सुनीता ने महसूस किया था कि बहु कुछ अनमनी सी है । सुनीता सोचती थी कि शायद अभी तक आँगन में नन्ही किलकारी नहीं गूंजी थी इस वजह से शायद बहु उदास होगी ।

मगर बात कुछ और ही थी बहु के मन में । हुआ युं था कि सुनीता की बहु कुछ ज्यादा ही किटी पार्टी में आती जाती थी और सुनीता ने एक दिन उसे मना कर दिया था । हालाँकि सुनीता ने उसे बहुत ही मधुर शब्दों में समझाने वाले तरीके से समझाया था और इस बात को भूल भी गयी थी ।  लेकिन बहु के दिलो दिमाग में कुछ और ही चल रहा था ।

फिर वो हुआ जिसकी किसी ने कल्पना ही नहीं की थी, कम से कम सुनीता ने । .................

....... क्षमा चाहूँगा मित्रों । कहानी कुछ लंबी हो रही है, सो इसे आप संयोग की तरह 2 भागों में पढ़ें । दूसरा भाग कल आपके लिए उपलब्ध हो जायेगा जिसमें आपको पता चलेगा कि ऐसा अचानक क्या हुआ था जो अकल्पनीय था । बहु ने या सुनीता ने क्या कुछ कहासुनी की या कुछ और हुआ । जानने के लिए कल इसी कहानी का दूसरा भाग जरूर पढ़ें । अपनी कीमती राय अवश्य देना ।

जय हिन्द

****शिव शर्मा की कलम से****


Click here to read "मां, एक पूरी दुनिया" written by Sri Shiv Sharma










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