Tuesday 27 December 2016

Virah


विरह

नमस्कार मित्रों । नववर्ष दरवाजे पर खड़ा दस्तक दे रहा है । आप सभी को आने वाले नए वर्ष की अग्रिम शुभकामनाएं ।

मित्रों इस बार मैनें हिम्मत करके एक विरह की कविता लिखने का प्रयास किया है, आपको अगर अच्छी लगे तो अपने मत अपने विचारों से मेरा मनोबल जरूर बढ़ाएं और यदि कुछ खामियां भी नजर आये तो मार्गदर्शन करें ।

इस कविता के माध्यम से एक ऐसी युवती की भावनाओं को व्यक्त करने का प्रयास कर रहा हुं जिसका पति हंसी ख़ुशी के कुछ दिन, कुछ महीने साथ साथ बिताने के पश्चात जीविकोपार्जन हेतु वापस परदेस चला जाता है, और जब वो अपने मायके आती है तो उसकी उदास सूरत देखकर जब उसकी सखियां उस से इसका कारण पूछती है तो वो कैसे अपनी पीर उन्हें बताती है ।

इन्ही सब विचारों को एक कविता के माध्यम से शब्दों में बांधने का छोटा सा प्रयास कर रहा हुं, आशा है आपको
पसंद आएगा ।



विरह

सूंदर मुखड़ा क्यों मुरझाया
क्यों कुम्हलाई कोमल काया
इस सूरत पे नहीं भाती है
आँखों में उदासी की छाया,
मुझे सच्ची सच्ची बात बता
क्यों हो गया ऐसा भेष सखी
काहे बिखरे बिखरे केश सखी

आ बैठ तुझे बतलाऊं मैं,
मेरे मन का हाल सुनाऊं मैं,
तुम्हें हर एक पीर बताउंगी,
कुछ तुझसे नहीं छुपाऊं मैं,
मुझे छोड़ अकेली तड़पने को
और लगा कलेजे ठेस सखी
मेरे पिया गए परदेस सखी

हर रंग हुआ बेरंग सखी
वो ले ना गए मुझे संग सखी,
मुझे सूनी सेज चिढ़ाती है
मौसम भी करता है तंग सखी,
श्रृंगार करूं किसकी खातिर,
किसलिए संवारुं केश सखी,
मेरे पिया गए परदेस सखी,




पायल अब छन छन गाती नहीं,
कोयल की राग सुहाती नहीं,
किस से मैं मन की बात करूँ
बैरन निंदिया भी आती नहीं,
दिन बदल गए शामें बदली
बदला सारा परिवेश सखी,
मेरे पिया गए परदेस सखी,

मैं अक्सर सो ना पाती हुं
जब यादों में खो जाती हुं,
विरहा का रोग लगा ऐसा,
मैं खुद ही खुद बतियाती हुं,
बिन उनके लगे जैसे जीवन में,
कुछ भी ना रहा अब शेष सखी,
एक पिया मिलन ही दवा इसकी
है रोग बड़ा ये विशेष सखी,
मेरे पिया गए परदेस सखी ।।

   *   *   *   *

जय हिंद

*शिव शर्मा की कलम से***









आपको मेरी ये रचना कैसी लगी दोस्तों । मैं आपको भी आमंत्रित करता हुं कि अगर आपके पास भी कोई आपकी अपनी स्वरचित कहानी, कविता, ग़ज़ल या निजी अनुभवों पर आधारित रचनायें हो तो हमें भेजें । हम उसे हमारे इस पेज पर सहर्ष प्रकाशित करेंगे ।.  Email : onlineprds@gmail.com

धन्यवाद

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Thursday 15 December 2016

Pita - पिता

पिता - Pita

मनोहर की तबियत कल शाम से ही कुछ नासाज थी फिर भी सुबह अपने नियमित समय पर बिस्तर छोड़ दिया । पत्नी रसोई में सुबह के नाश्ते के साथ साथ दोपहर के खाने की तैयारियों में जुटी थी । बच्चे अपने माता पिता के सुरक्षित साये में आराम की नींद सो रहे थे । आज उनकी स्कूल की भी छुट्टी थी ।

"अरे.... आप इतनी जल्दी क्यों उठ गए ? तबियत खराब है तो थोड़ी देर और सो जाते । आज दफ्तर से छुट्टी ले लीजिए ।" पत्नी ने शिकायती लहजे में मनोहर को समझाया ।

"नहीं रमा, अब मुझे थोड़ा ठीक लग रहा है । एक बार और दवा ले लुंगा तो और बेहतर लगने लगेगा । और आज तो ऑफिस जाना बहुत जरुरी है, एक बड़ी पार्टी आने वाली है ।" कहते कहते मनोहर को खांसी आ गयी ।

"लो, आ गयी न खांसी, फिर कहते हो ठीक लग रहा है । पता है, रात भर खांस रहे थे तुम, और हलकी बुखार भी थी । मेरी मानो तो आज आज तुम आराम करो । पार्टी आ रही है तो कोई और नहीं है क्या सँभालने वाला । आप बस फोन करदो ऑफिस में की आप आज नहीं आ रहे हो ।" पत्नी ने जिद्द सी की ।

"अरे नहीं नहीं, मैं ठीक हुं । तुम एक अदरक वाली चाय पिलादो तो खांसी भी काबू में आ जायेगी ।" मजाकिया अंदाज में मनोहर ने कहा और बाथरूम में घुस गया ।

दो बच्चों का पिता मनोहर एक प्राइवेट कंपनी में सेल्स मैन का काम करता था । शहर के खर्चो के मुकाबले तनख्वाह ठीक ठाक  थी । थोड़ी जद्दोजहद करके वो किसी तरह गुजारा तो चला रहा था परंतु जिम्मेदारियों के चलते बहुत सी जगहों पर समझौता करना पड़ता था ।

बेटा आठवीं कक्षा में पढता था और बेटी छठवीं में । शहरो में पढाई भी तो महंगी होती है । स्कूल की फीस, ट्यूशन और कॉपी किताबों के खर्च अलग से । फिर कभी कभी कुछ अन्य पारिवारिक या स्वास्थ्य सम्बंधित खर्चे भी आ जाते । उसने पूरी जिम्मेदारी से हर स्तिथि से तालमेल बैठा रखा था ।

एक जिम्मेदार पिता की तरह अपनी कई इच्छाओं के साथ समझौता करके बच्चों की हर जायज इच्छाएं पूर्ण करता था ।




पत्नी कहते कहते थक गयी की एक जोड़ी कपडे बनवा लो, परंतु उसका यही जवाब होता था कि मेरे पास जरुरत के कपड़े हैं ना । इस बार तो तुम्हारे लिए एक साड़ी लानी है, इस बार बबलू को नए जुते दिलाने है या पिंकी के लिए ड्रेस लेनी है ।

उसकी ऑफिस घर से काफी दूर थी । रोज सुबह 9 बजे की बस से जाता था और शाम को 8 बजे वापस आता । फिर पत्नी और बच्चों के साथ अपनी दिनभर की थकान भुलाकर हंसी ठिठोली करता, बच्चों को पढ़ाता ।

अपनी ऑफिस की परेशानियों को परिवार के सामने कभी भी जाहिर नहीं होने देता । शायद संसार का हर पिता इस विधा में माहिर होता है कि हजारों परेशानियों के बावजूद बच्चों के सामने अपने चेहरे पर शिकन तक नहीं आने देता है ।

कल शाम को भी जब मनोहर ऑफिस से आया था तो चेहरे पर वही चिर परिचित मुस्कान थी । वो तो पिंकी ने जब उसका हाथ पकड़ा तो बोली, पप्पा आपका हाथ गरम क्यूं है ।

कुछ नहीं बेटा ऐसे ही, थोड़ा थक गया हूँ और बाहर से आया हुं ना इसलिए गरम लग रहा है । उसने पिंकी को गोद में लेते हुए कहा ।

फिर रोजमर्रा की तरह जब बबलू और पिंकी मनोहर के साथ मस्ती कर रहे थे तो रमा ने कहा था । चलो बच्चों, अब सो जाओ और पापा को भी आराम करने दो, पापा को बुखार है ना ।

रमा ने उसको दवा दी साथ ही खांसी के लिए काढ़ा भी बनाकर दिया और ये हिदायत भी कि "कल पुरे दिन घर पर आराम करना, अगर तबियत ठीक ना हो तो ।" परंतु वो तो हमेशा की तरह अपने समय पर ही उठ गया था ।

जब तक वो नहाकर आया रमा चाय बना चुकी थी । दोनों चाय पीते हुए बच्चों के भविष्य के बारे में बातें करने लगे । बात बात में रमा ने फिर शिकायत कर दी "आप हमेशा मेरी और बच्चों की फिक्र करते रहते हो, कुछ अपनी सेहत का भी तो थोड़ा ध्यान रखो । बुखार है फिर भी जिद कर रहे हो ऑफिस जाने की, आज आज नहीं जाओगे तो क्या आफत आ जायेगी ।"

"तुम भी रमा कमाल करती हो, थोड़ी सी जुकाम ही तो है, ठीक हो जायेगी । तुम्हारे हाथ की अदरक वाली चाय रामबाण का काम करेगी, देख लेना शाम तक जुकाम फुर्र हो जायेगी ।"

"और तुम सबकी फ़िक्र मैं नहीं करूँगा तो कौन करेगा ।" फिर वो बच्चों की तरफ देखते हुए बोला "आखिर ये ही तो अपनी दुनिया है ।"

साढ़े आठ बजने को थे, बच्चे अब भी सो रहे थे । गांधी जयंती की छुट्टी ना होती तो कब के स्कूल जा चुके होते ।

"बच्चों को आज आराम से सोने दो, रोज जल्दी उठते है । लाओ टिफिन दे दो, बस का समय हो रहा है ।" मनोहर ने कहा और कपड़े बदलने चला गया ।

तैयार हो कर मनोहर ने अपनी बैग व टिफिन लिया और प्यार से बबलू और पिंकी के सर को सहलाकर ऑफिस के लिये निकल पड़ा ।

रमा उसको जाते देखते हुए सोच रही थी.... मैं जानती हुं मनोहर कि छुट्टी लेकर तुम एक दिन की तनख्वाह की कटौती नहीं करवाना चाहते । कुछ वर्षों पहले तक तो तुम मुझे सिनेमा दिखाने के लिए भी छुट्टी ले लिया करते थे, मगर आज खुद की तबियत खराब है फिर भी परिवार की खातिर उसे नजरअंदाज कर जाते हो । तब के और आज के मनोहर में कितना बदलाव आ गया है । स्वछंद उड़ने वाला एक लड़का आज कितना जिम्मेदार हो गया है । अपने सपनों को दरकिनार कर बच्चों के भविष्य के सपने देख रहा है । अपने शौक दफ्न करके बच्चों के शौक पुरे कर रहा है । कल का एक लापरवाह शख्स आज परवाह करना सीख गया है । क्योंकि कल का वो आजाद पंछी आज पिता जो बन गया है ।
         * * * *

आपको ये कहानी कैसी लगी, आशा है आपको पसंद आएगी । बताना जरूर । अभी के लिए नमस्ते मित्रों । जल्द ही फिर मुलाकात होगी ।

जय हिंद

*शिव शर्मा की कलम से***









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