Monday 20 February 2017

Shubh Yatra Part - II

शुभ यात्रा (यात्रा वृतांत भाग -२)


मित्रों सबसे पहले तो आप सभी का धन्यवाद जो आपने भाग - १ को इतना सराहा । ये आपका स्नेह ही तो है जो मुझ जैसे नोसिखिये को भी लिखने के लिए प्रेरित करता रहता है । इसे इसी तरह बनाये रखें और मेरा हौसला बढ़ाते रहें ।

तो लीजिये यात्रा वृतांत का भाग - २ आपके लिए हाजिर है । भाग -१ में आपने यहाँ तक पढ़ा था .......

.......... फिर जैसे ही मैंने पैसे देने के लिए जेब में हाथ डाला तो ये क्या !

जेब में से पर्स गायब !.......

अब आगे ......

शुभ यात्रा

एकबारगी तो मेरे होश ही उड़ गए कि शायद जेब कट गयी । मैंने याद करने की कोशिश की तो याद आया कि सुबह आबू रोड स्टेशन पर मैंने बिस्किट ख़रीदे थे, उसके बाद जवाई बांध स्टेशन जहां पर अधिकतर यात्री उतर गए थे तब तक तो मैंने बटुवा जेब से वापस निकाला भी नहीं था । फिर कहां जा सकता है ? हो ना हो, आज तो नुक्सान हो गया, जेब कट गयी । शायद यात्रा की थकान और रात भर ना सो पाने की वजह से पता ही नहीं चला की कब पर्स जेब से निकल गया ।

इसी उधेड़बुन में याद करने हेतु मस्तिष्क पर जोर डाल ही रहा था कि तभी ध्यान में आया कि अभी उनींदी अवस्था में जब शौचालय गया था, तब वहां मैंने बटुआ जेब से निकाल कर साबुन रखने वाले स्थान पर रखा था, जो शौचालय में वाश बेसिन के ऊपर बना रहता है ।

मुझ में एक नयी उम्मीद और ऊर्जा का संचार हुआ ।

मैं जल्दी से उठा और वापस शौचालय की तरफ भागा, पत्नी पूछती रह गई की क्या हुआ, मैंने इतना ही कहा कि कुछ नहीं, आता हूं ।

शौचालय बंद था । कोई यात्री अंदर था । मैं चाय भूल चुका था, नींद तो एकदम उड़ ही चुकी थी । मैं तो बस मन ही मन ईश्वर को याद कर रहा था कि बटुआ सही सलामत मिल जाए । अंदर पैसों के अलावा कुछ जरुरी कागजात भी थे ।



तभी दरवाजा खुला और एक युवक बाहर निकला । मैंने पहले तो तुरंत अंदर देखा और वहां बटुआ ना देखकर उस युवक से पूछा कि अंदर कोई बटुआ देखा क्या ।

उसका ना मैं जवाब सुनकर मेरा मन बुझ सा गया । क़्योंकि ये सब होने में काफी वक्त गुजर चुका था तब तक तो कम से कम तीन चार यात्री उस शौचालय का उपयोग कर चुके होंगे । पता नहीं बटुवा किसके हाथ में लग गया होगा ।

मैं निराश मन से वापस सीट पर आया तो पत्नी मेरा चेहरा देखते ही समझ गयी कि कुछ तो गड़बड़ है । और ना चाहते हुए भी मुझे उसे सब बताना पड़ा ।

करीब तीन हजार रुपये और दो सौ डॉलर के अलावा मेरा पैन कार्ड, कंपनी का आइडेंटिटी कार्ड, जहां मैं काम करता हूँ उस देश नाइजीरिया का रेजिडेंस परमिट और कुछ हिसाब की पर्चियां इत्यादि बटुवे के साथ ही गयी ।

सुनकर पत्नी के चेहरे पर भी उदासी सी छा गई । उसने रुआंसे मन से कहा, कल से सब कुछ अच्छा अच्छा हो रहा था, इस एक घटना ने सब मटियामेट कर डाला । बेटा भी हक्का बक्का था और मैं सर झुकाये सोच रहा था कि उस बटुवे में और क्या क्या था । तभी एक आवाज आई ।

"शिव शर्मा जी" । मैंने चेहरा ऊपर कर के देखा तो शक्ल सूरत से ही किसी अच्छे खानदान का लगने वाला एक 35-40 वर्षीय एक अनजान व्यक्ति सामने खड़ा था ।

"जी, मैं हुं, कहिये ।"

"परंतु फोटो में और आप में तो बहुत अंतर है, लगता है फोटो काफी पुरानी है ।" उस व्यक्ति ने कहा ।

"मगर मेरी फोटो आपने कहां देखली ?" मैं थोड़ा झुंझला भी गया था कि एक तो नुकसान हो गया, हम परेशान हैं और ऊपर से ये भाईसाब उटपटांग बातें कर रहे हैं ।

"जी आपके पैन कार्ड और आइडेंटिटी कार्ड पर, जो आपके बटुवे में थे ।"



मैंने चौंक कर उनकी तरफ देखा तो मुस्कुराते हुए उन्होंने अपनी जेब से मेरा बटुआ निकाला और मुझे देते हुए बोले "ये आपका ही बटुवा है ना, देख लीजिए, अंदर आपकी सब चीजें सही सलामत तो है ना ?"

मुझे तो कुछ सूझ ही नहीं रहा था कि मैं उनको क्या प्रतिक्रिया दुं । इस अप्रत्याशित घटना से जुबां पर कोई शब्द नहीं आ रहे थे । बस मैंने उन्हें गले लगाया और इतना ही कहा,

"भाई साहब, अब ये बटुआ अगर मैं ये जानने के लिए चेक करुं, कि अंदर सब कुछ सही है या नहीं, तो ये आप जैसी जीते जागती ईमानदारी की मिसाल का अपमान होगा । क्योंकि अगर आपको पैसों का लालच होता या आपकी नियत ख़राब होती तो ये बटुआ मेरे हाथ में नहीं होता ।"

"आपका बहुत बहुत धन्यवाद भाईसाहब, आप नहीं जानते आपने मुझे कितनी तरह की होने वाली परेशानियों से बचा लिया ।"

मैंने भावावेश में पुनः एक बार उन्हें गले से लगा लिया । फिर उन्होंने बहुत अच्छी बात कही,

"भाईसाहब, पैसों का लालच तो उनको होता है जिन्होंने पैसे देखे ना हो । और उस तरह से बनाये हुए पैसे कभी फलित भी नहीं होते हैं । पता नहीं क्या संयोग है कि इस तरह के काम के लिए भगवान बार बार मुझे चुनते हैं । पिछले चार वर्षों में आप तीसरे व्यक्ति है जिनका बटुआ मुझे मिला । शायद वो खुश है मुझसे ।"

फिर उन्होंने ऊपर की तरफ देखकर भगवान का धन्यवाद करने के अंदाज में आगे कहा ।

"भगवान ने जो भी मुझे दिया है वो मेरे लिए काफी है, और वो देते जा रहा है तो फिर मैं क्यों पराये पैसों पर अपनी नियत ख़राब करूँ ।" तब तक अन्य कुछ यात्रियों के कानों में भी ये बात पड़ी तो वे भी उन्हें तारिफी नजरों से देख रहे थे । जोधपुर से चढ़े एक बुजुर्ग ने तो बाकायदा उनकी पीठ थपथपाकर शाबाशी भी दी ।

कुछ रुक कर वे फिर बोले "मैंने इस बटुवे के धारक की पहचान हेतु जब अंदर उस से सम्बंधित किसी पहचान वस्तु के लिए जाँच कि तो आपका आइडेंटिटी कार्ड, जो किसी बाहर की कंपनी का है, और पैन कार्ड मिला । लेकिन उसमें आपकी पुरानी फोटो होने की वजह से सीधा आपको पहचान नहीं पाया । फिर जब देखा कि डिब्बे में आप ही बेचैनी से इधर उधर आ जा रहे थे, तो पुनः वे फोटो देखे और पक्का किया कि आप ही हैं । बाद में और पक्का करने हेतु आपको नाम से पुकारा । अब मैं भी निश्चिन्त हो गया कि मैंने बटुआ उसके असली मालिक को ही सौंपा है । अब मैं चलता हुं, मेरा स्टेशन आ गया । मुझे राइकाबाग पैलेस स्टेशन उतरना है ।"

कहते हुए वो हाथ मिलाकर अपना सामान लेकर गाड़ी से उतर गए । मैं उन्हें जाते देखते हुए सोच रहा था कि आज भी दुनिया में कुछ लोग ऐसे हैं जिनके कार्यों कि हम मिसालें दे सकते हैं ।

"ये यात्रा तो ईश्वर कृपा से सचमुच सुखद यात्रा के साथ साथ शुभ यात्रा भी बन गयी ।" पत्नी ने कहा तो हम तीनों मुस्कुरा पड़े । तभी थोड़ी दूरी से फिर चाय चाय, गरम चाय की ध्वनि सुनाई दी । उस दिन वो चाय और वे पूरियां कुछ ज्यादा ही स्वादिष्ट लग रही थी ।

 *  **     **    ***

मित्रों पुनः आपका हृदय से धन्यवाद, आशा है आपको ये यात्रा वृतांत अच्छा लगा होगा । अगली मुलाकात के लिए आज विदा लेते हैं । जल्दी ही फिर मिलेंगे एक और नए विषय और नए किस्से के साथ । तब तक के लिए नमस्कार मित्रों ।

Click here to read शुभ यात्रा (भाग १) written by Sri Shiv Sharma

जयहिंद

*शिव शर्मा की कलम से***









आपको मेरी ये रचना कैसी लगी दोस्तों । मैं आपको भी आमंत्रित करता हुं कि अगर आपके पास भी कोई आपकी अपनी स्वरचित कहानी, कविता, ग़ज़ल या निजी अनुभवों पर आधारित रचनायें हो तो हमें भेजें । हम उसे हमारे इस पेज पर सहर्ष प्रकाशित करेंगे ।.  Email : onlineprds@gmail.com

धन्यवाद

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Thursday 16 February 2017

Shubh Yatra - शुभ यात्रा (भाग १)


शुभ यात्रा (यात्रा वृतांत - भाग १)



रेल यात्रा का अनुभव मजेदार तो होता ही है, साथ ही साथ प्रायः हर लंबी दूरी की रेल यात्रा में कुछ ना कुछ ऐसा घटित हो ही जाता है जो यादगार बन जाता है । मैं भी मेरी इस बार की रेल यात्रा का अनुभव आप से साझा कर रहा हुं, जो तकलीफदेह हो सकती थी मगर संयोग से काफी हद तक सुखद यात्रा बन गई ।

पिछले वर्ष की ही बात है, मैं सपरिवार एक पारिवारिक विवाह समारोह में शामिल होने मुम्बई से राजस्थान जा रहा था । अप्रैल का तपता हुआ महीना था । काफी ज्यादा ही गर्मी पड़ रही थी उन दिनों । उस पर तनाव पैदा करने वाली बात ये थी कि, यात्री हम तीन थे, और हमारे पास आरक्षित टिकट मात्र एक ही पत्नी के नाम वाली ही थी ।

बाकि दो टिकटें यात्रा दिवस तक प्रतीक्षा सूची में ही रह गई थी । तत्काल सुविधा में भी नई टिकट लेने की कोशिश की मगर नहीं मिल पाई ।  गनीमत ये हुई कि तीन में से एक टिकट मेरे भांजे ने प्रयास करके रेलवे में कार्यरत अपने एक परिचित अफसर से आग्रह करके महिला कोटे में आरक्षित करवा दी थी । कुछ नहीं होने से तो थोड़ा कुछ होना भी अच्छा ।



जाना भी जरूरी था, अतः ये सोचकर कि अठारह बीस घंटे का ही तो सफर है, कुछ तकलीफ सहकर जैसे तैसे काट लेंगे, अपने मन को तरह तरह की तसल्लियां देने में एक तसल्ली ये भी दे रहे थे कि सुबह भोर में फलां फलां स्टेशन पर गाड़ी लगभग खाली हो जाती है, तो छः सात घंटे आराम करने को मिल जाएंगे । इसी तरह की बातों से अपने मन और खुद को समझा बुझाकर गाड़ी में चढ़ गए ।

अंदर जब डब्बे का दृश्य देखा तो पता चला कि एक आरक्षित और दो प्रतीक्षा सूची वाली टिकट में यात्रा करने वाले यात्री केवल हम ही नहीं थे, और भी बहुत से यात्री थे, जो लगभग हमारी वाली ही स्तिथि में ही थे ।

वैसे भी अप्रैल के महीने में हर वर्ष अमूमन यही स्तिथि रहती है । पुरे महीने हर गाड़ी भरी रहती है । आरक्षित सीट कोई भी खाली नहीं रहती और प्रतीक्षा सूची की हालत तो तौबा तौबा । उस दिन भी उस डिब्बे में मेरे ख़याल से कम से कम 30 प्रतिशत यात्री प्रतीक्षा सूची वाले थे ।

धीरे धीरे हम जब अपनी आरक्षित सीट पर पहुंचे और जब ये पता लगा कि उस कूपे की बाकी पांच सीट एक ही परिवार की थी, और सोने पे सुहागा ये कि उनकी पांचों टिकटें आरक्षित थी, एवं उनके पास सामान भी ज्यादा नहीं था । जानकर राहत मिली की चलो कम से कम बोहनी तो अच्छी हुई है, बाद की बाद में देखेंगे ।

उस दिन शायद भाग्य और समय हमारा साथ दे रहा था । क़्योंकि वे सहयात्री एक तो मिलनसार निकले और दूसरा उनका गंतव्य स्थान वही था, जिसकी हम कल्पना कर रहे थे ।

मेरा दिल तो बल्लियों उछलने लगा कि चलो शुरूआती सफर में थोड़ी तकलीफ उठानी होगी, लेकिन आगे का सफर आराम से कर पाएंगे । कहते हैं ना, अंत भला तो सब भला ।

मैंने पत्नी से धीरे से कहा, भगवान ने तुम्हारी सुन ली, तुम जो हाथ जोड़ कर जो प्रार्थना कर रही थी ना, कि भगवान करे साथ वाले यात्री अच्छे हों, मिलनसार हों आदि आदि । ये तो भगवान ने अच्छे से भी कहीं ज्यादा अच्छा कर दिया । सुबह यही सीटें खाली हो जायेगी, छह की छह हमारी ।' पत्नी के चेहरे पर भी एक सुकून भरी मुस्कान आ गई थी ।

समय और गाड़ी दोनों अपनी रफ़्तार से चल रहे थे । हमें भी उस भले परिवार ने आराम से बैठने की जगह दे दी थी । उन पांच में दो आठ दस साल के बच्चे थे इस लिए बैठने के लिए काफी जगह थी ।




शाम का भोजन करने और कुछ समय गपशप करने के बाद उन भाईसाहब ने कहा कि हमें सुबह जल्दी उतरना है और बच्चों को भी नींद आ रही है सो कुछ समय सो लेते हैं । मैंने भी कहा हां भाईसाहब थोड़ा आराम कर लीजिए । आइये शायिकाएँ खोल देते हैं ।

शायिकाएँ खोल देने से सीट पर बैठने में कुछ दिक्कत सी होने लगी तो मैं और मेरा पुत्र सीटों के बीच नीचे जो खाली जगह होती है वहां अखबार बिछाकर बैठ गए ।

लेटने जितनी जगह नहीं बची थी क्योंकि पहले जो थोड़ा बहुत सामान ऊपर की सीट पर रखा हुआ था वो शायिका पर सोने के लिए वहां से हटाना पड़ा और नीचे रखना पड़ा ।

हम दोनों सीट का सहारा लेकर नीचे बिछाए अखबार पर बैठ गए । पत्नी थोड़ी चिंतित थी कि इतनी देर बैठे बैठे आप लोग थक जाएंगे । मैंने उसे तसल्ली दी कि कुछ ही घंटे की बात है, चिंता मत करो और तुम सो जाओ आराम से ।

हम ये बात कर ही रहे थे तभी साइड वाली सीट, जिस पर दो जने बैठे थे, और इतनी देर के सफर में थोड़ा परिचित भी हो चुके थे, उन्होंने बिना मांगे ही मन माँगा प्रस्ताव दिया कि "भाईसाहब, आप एक काम कीजिये, आप दोनों में से एक तो हमारे साथ बैठ जाइए, और एक इस जगह का उपयोग थोड़ा आड़ा टेढ़ा हो कर सोने में कर लीजिए, दो चार घंटे की ही तो बात है । और हम तो वैसे भी आज सोने वाले हैं नहीं, सोयेंगे तो अब तो घर जाकर ही ।" घर जाने की ख़ुशी उसके चेहरे से साफ़ झलक रही थी ।

ख़ुशी तो होती ही है अपने घर जाने की । अपने परिवार से मिलने की, अपने मित्रों से मिलने की । अपनी मिटटी, अपना गांव, अपने लोग । तभी तो हम भी एक टिकट पर तीन जने निकल पड़े थे ।

मुझे थोड़ा सा झिझकते हुए देख कर वो फिर बोले, "आ जाइये, आ जाइये भाईजी, झिझकिये मत, यहाँ बैठ जाइए । नीचे बैठे रहने से तो बेहतर है सीट पर बैठें । कम से कम पैर तो सीधे रहेंगे ।" बात सही भी थी, इसलिए उनकी बात मानकर मैं उनके साथ सीट पर बैठ गया और बेटे ने मेरे कहने पर नीचे ही, सामान को थोड़ा दाये बाएं करके सोने लायक जगह बनाली और लेट गया ।

अब जाके मुझे थोड़े सुकून का अहसास हुआ कि चलो ये माँ बेटे तो थोड़ा आराम कर लेंगे और जब सुबह भीड़ छंट जायेगी तो मैं भी कुछ देर लंबी तान लूंगा । थोड़ा सुस्ता लूंगा ।

हम दोनों को कुछ आरामदायक स्तिथि में देखकर पत्नी के चेहरे पर थोड़ी राहत के भाव दिखाई दिए ।

जैसे जैसे रात गुजर रही थी प्रायः सब ऊँघने लग गए थे । हमने भी बैठे बैठे एक आध झपकी ले ही ली थी । पत्नी सीट पर और बेटा अखबारों के बिस्तरे पर आराम से सो रहे थे । नींद भी क्या चीज है, नहीं आये तो गद्देदार बिस्तर पर भी नहीं आती और आनी हो तो ना गद्दा चाहिए ना तकिया ।

रात गहरी होते होते डब्बे में काफी हद तक सन्नाटा पसर चूका था । मुझे भी सीट पर बैठे बैठे झपकियों के रूप में थोड़ी थोड़ी नींद आ रही थी । घड़ी की सुइयां समय के साथ साथ लगातार चल रही थी ।

इस बार मेरी झपकी टूटी उसका कारण डब्बे में होने वाली हलचल थी । जिनके साथ मैं बैठा था उन्होंने ही कहा भाईजी, हमारा स्टेशन आने वाला है, यहां डिब्बे से बहुत से यात्री उतरेंगे, फिर वो मुस्कुरा कर बोला, अब आप अपनी पसंद की कोई शायिका चुनकर आराम से सो सकते हैं ।

मैंने भी मुस्कुरा कर उन दोनों का आभार व्यक्त किया जिनकी वजह से मैं काफी हद तक थोड़ा आराम कर सका ।

मैंने समय देखा, सुबह के पांच बजने वाले थे । शुक्र था कि गाड़ी अपने समय पर चल रही थी । पत्नी और बेटा भी शोरगुल सुनकर जाग गए थे । कुछ ही देर में ठीक समय पर वो स्टेशन आ गया और वाकई पांच मिनट में ही डिब्बा लगभग खाली हो गया । मेरे ख्याल में पूरे डिब्बे में अब मात्र 35-40 यात्री बचे थे ।

मैंने राहत की एक लम्बी सांस ली, तब तक बेटा ऊपरवाली एक बर्थ पर अपना कब्जा जमा चूका था । गाडी वापस चल पड़ी थी । पत्नी ने कहा, अब आप भी थोड़ी देर सो लीजिये, पूरी रात से आप बैठे बैठे सफर कर रहे थे ।



मैं भी ऊपर की ही बर्थ पर जाकर सो गया, और नींद तो जैसे इसका ही इन्तजार कर रही थी कि कब मैं आराम से लेटु और कब वो आये । तकरीबन तीन घंटे मैं घनघोर नींद सोया । वो तो प्राकृतिक समस्या की वजह से नींद खुल गयी वरना नींद तो पूरी हुई ही नहीं थी ।

पत्नी और पुत्र दोनों उठ गए थे और खाली पड़ी सीट पर आराम से बैठे थे । मुझे नीचे उतरते देख पत्नी बोली, अरे, इतनी जल्दी क्यों उठ गए । अभी तो बहुत समय है अपना स्टेशन आने में, सो जाओ कुछ और देर । मैंने कहा हां देखते है, परंतु रोजमर्रा के कुछ जरुरी कार्य निपटाने के बाद । ये कहकर मैं साबुन लेकर शौचालय की तरफ चला गया ।

तरोताजा होकर वापस आने तक नींद लगभग उड़ चुकी थी तो मैं भी उन दोनों के साथ ही सीट पर बैठ गया और रात की यात्रा की बातें करने लगे ।

इतने में चाय चाय गरम चाय की आवाज लगता चाय वाला आया और हमने तीन चाय ली । फिर जैसे ही मैंने पैसे देने के लिए जेब में हाथ डाला तो ये क्या !

जेब में से पर्स गायब ! ........
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मित्रों यात्रा वृतांत कुछ लंबा बन पड़ा, हालांकि जहां जहां संभव हो सका मैंने इसे कम शब्दों में समेटने का प्रयास किया । फिर भी मजबूरन इस यात्रा वृतांत को दो भागों में करना पड़ेगा, आशा है आप इसे स्वीकार करेंगे । दूसरा भाग कल ही आपकी सेवा में हाजिर होगा तब तक के लिए विदा दोस्तों ।


Click here to read "एक चिट्ठी प्यार भरी" by Sri Shiv Sharma


जयहिंद

*शिव शर्मा की कलम से***









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