Thursday 22 June 2017

मैं ही मैं

मैं ही मैं

नमस्कार मित्रों । हर व्यक्ति जीवन  के हर एहसास से कभी ना कभी गुजरता ही है जिसमें प्रेम, गुरुर, मदहोशी, स्वच्छंदता आदि नाना प्रकार के मोड़ आते हैं और जहां व्यक्ति को लगता है कि इसकी वज़हें बस मैं ही हुं बाकि सब तो युं ही है ।

परंतु समयानुसार उसे ये एहसास भी होता ही होता है कि उसके इन परिवर्तनों की वजहें तो बहुत से उसके चाहने वाले हैं । उसके अपने, उसके मित्र, उसके शुभचिंतक आदि ।

इन्ही भावनाओं को, मूलतः मराठी लेखक, श्री प्रदीप माने ने एक ग़ज़ल मैं ही मैं के रूप में बांधकर आपके समक्ष प्रस्तुत किया है । आपको उनका ये प्रयास पसंद आये तो अपने मूल्यवान सुझाव और आशीर्वाद जरूर दें ।

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मैं ही मैं


मैं ही मेरा सवाल अपना और मैं ही जवाब हुं ,
मेरी अपनी सल्तनत का मैं ही नवाब हुं ।

मदहोश हुं अपनी ही धुन में होश कहाँ कोई मुझे,
मैकदा ना कर सके वो बहका सा हिसाब हुं ।

बन कर भंवरा उड़ता हुं गुलशन की हर क्यारी में,
पंखुड़ी ओढ़ चुरा लेता मैं फूलों से हिज़ाब हुं ।




झेलता हुं रोज तीखी नजरों के तीर कई ,
पलकें झुका के सब को कर लेता आदाब हुं ।

आगाज भी हुं कभी तो कभी मैं अंजाम हुं,
आंखों में किसी के छुपा हुआ ख्वाब हुं ।

दोस्तों की महफ़िल की रौनक भी हुं ज़नाब मैं,
लग ही जाएगी लत जिसकी ऐसी कम्बख्त शराब हुं ।

खुद में ही खोया हूं नीले आसमान सा,
कभी चाँद सा शीतल हुं तो कभी आफताब हुं ।




पहला झूठ कभी तो कभी आखरी सच भी हुं,
सुलझा सवाल तो कभी उलझा सा जवाब हुं ।

खामियां तो है पर कुछ खूबियां भी है मुझमें,
अमृत की बूंदें भी हुं गर मैं कभी तेज़ाब हुं ।

आप मेरे दिल में है मुझे अपने दिल में जगह देना,
कुछ नहीं अपनों के बिन मैं एक अधूरा ख्वाब हुं ।।


Click here to read "पंख" by Sri Pradeep Mane


रचना : प्रदीप माने "आभास"










आपको ये रचना कैसी लगी दोस्तों । मैं आपको भी आमंत्रित करता हुं कि अगर आपके पास भी कोई आपकी अपनी स्वरचित कहानी, कविता, ग़ज़ल या निजी अनुभवों पर आधारित रचनायें हो तो हमें भेजें । हम उसे हमारे इस पेज पर सहर्ष प्रकाशित करेंगे ।.  Email : onlineprds@gmail.com

धन्यवाद
शिव शर्मा



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