Sunday 1 July 2018

काळू और सिनेमा

काळू और सिनेमा


नमस्कार दोस्तों । काळू याद है ना । जी हां, वही काळू, हँसमुख और मजाकिया । उसे कैसे भूल सकते हैं । वो, उसकी शरारतें और उसकी बातें..... थी ही इतनी मीठी मजेदार कि भुलाए नहीं भूलती । इसीलिए आज मैं आपको काळू के एक और खास शौक और कारनामे के बारे में बताऊंगा ।

काळू को सिनेमा देखने का बहूत शौक था । अपनी पसंदीदा हर फिल्म वो देख ही लेता था । उसमें एक और खास बात ये थी कि वो फ़िल्म देख भी आता था और घर पर पता भी नहीं चलने देता था । उस वक्त सिनेमा छुप छुपकर देखनी पड़ती थी, क्योंकि उस जमाने और उस उम्र में सिनेमा देखने की घरवालों की तरफ से बिल्कुल इजाजत नहीं मिलती थी ।

फिर भी काळू तो काळू था, एक नम्बर बाजीगर । ये बाजीगरी वो कैसे कर जाता था ये भी आपको आगे पढ़ते पढ़ते पता चल जाएगा कि काळू क्या चीज था ।

काळू पहले से अखबार में हर नई रिलीज होने वाली फिल्म के बारे में देख पढ़कर ही निश्चय कर लेता था कि कौनसी फ़िल्म देखनी है और कौनसी नहीं । क्योंकि एक तो रिस्क लेनी पड़ती थी और दूसरे पैसे भी तो इतने नहीं होते थे  कि अंधाधुंध खर्च किये जायें । पैसे तो मौके बेमौके खर्च के लिए कभी कभार मिलने वाले पैसों में से ही बचाकर (और छुपाकर भी) रखने होते थे ।

वैसे कोई भी सिनेमा हमारे कस्बे में तो रिलीज होने के कुछ महीनों बाद ही आती थी, परंतु हमारे लिए तो वो नई नई ही होती थी । क्योंकि हमारे कस्बे के सिनेमाघर में अब आई है इसलिए हमारे लिए वो ताज़ा ताजा ही रिलीज हुई ना ।

कॉलेज के दिनों की बात है, उस वक्त एक फ़िल्म काफी चर्चा में थी और रेडियो तथा अखबारों के जरिये उस फिल्म का प्रचार प्रसार भी काफी हो चुका था । काळू उस फिल्म को देखने को बड़ा बेताब था कि कब ये फ़िल्म हमारे सिनेमाघर में लगे और कब मैं इसे देखूं ।

खैर कुछ दिनों बाद काळू की इच्छा पूरी हुई जब मोहल्ले में माइक लगा हुआ चिरपरिचित तांगा आया ।

उस वक्त किसी भी तरह के प्रचार प्रसार का साधन वो तांगा हुआ करता था । चाहे कस्बे या पास के किसी गांव में कोई खास आयोजन का प्रचार हो, चुनाव प्रचार हो या किसी फ़िल्म का प्रचार।

तांगे के दोनों और संबंधित प्रचार के पोस्टर लगे होते थे और आगे एक बड़ा सा माइक, उस में टांग पर टांग धरे, राजसी अंदाज में, एक उद्घोषक बैठा होता था, और बड़े सधे हुए नपेतुले अंदाज में बहुत ही मनोरंजक तरीके से बोलता था । शायद उसको उसकी इस खासियत का, इस अदाकारी का अच्छाखासा मेहनताना मिलता था ।

"सुनिए, सुनिए, सुनिए..... मुम्बई (उस वक्त की बम्बई) दिल्ली और कलकत्ता में....... खूब धूम मचाने के बाद..... अब अगले सप्ताह से आपके अपने शहर में धूम मचाने आ रही है.... शानदार जानदार सिनेमा .....--- -- .... जो दर्शकों की भारी मांग पर शहर के दोनों सिनेमाघरों में प्रदर्शित होगी...... जी हां......  देखना ना भूलें.... अगर ये फ़िल्म नहीं देखी तो समझो कुछ नहीं देखा ....... आप भी देखें और अपने परिवार को भी दिखाएं ।" वो बार बार ये उद्घोष कर रहा था ।

इधर इस सूचना ने तो काळू की तो जैसे नींद ही उड़ा दी थी । वो उसी वक्त से योजनाएं बनाने में लग गया कि कैसे पहले दिन पहला शो देखूं । इस फ़िल्म के लिए उसने पैसे भीबचाकर रखे थे, तकरीबन सात आठ रुपये थे ।

युं तो उस वक्त सभी करों के साथ टिकट केवल अढ़ाई रुपये की ही थी, लेकिन कस्बे में तब कोई अग्रिम बुकिंग या कतार में लग कर टिकट लेने वाली व्यवस्था तो थी नहीं । उस वक्त तो जैसे ही टिकट खिड़की खुलती लोग टूट पड़ते थे फ़िल्म की टिकट पाने के लिए ।

पसीने से लथपथ उस भीड़ को चीर चार कर जब कोई मुट्ठी में फ़िल्म की टिकट लेकर आता था तो उस वक्त उसके चेहरे के हावभाव ऐसे दिखते थे जैसे कोई शूरवीर प्रतापी जांबाज कोई जंग जीत कर आया हो ।




ये एक बात हम कभी नहीं समझ पाए थे कि उन टिकट ब्लैक करने वालों को पंद्रह बीस टिकट कैसे मिल जाया करती थी । जबकि टिकट खिड़की पर तो अधिकतम चार टिकट का ही प्रावधान था । और उन चार टिकटों के लिए भी दांतों तले पसीना आ जाता था ।

अक्सर इस धक्कामुक्की से बचने हेतु लोग, और हम भी, वो अढ़ाई रुपये वाली टिकट तीन या चार रुपये में ब्लैकियों से खरीद कर ही फ़िल्म देखा करते थे ।

यही वजह थी कि काळू ने पहले से आठ नौ रुपये जमा कर लिए थे । भई सुपर हिट फिल्म थी और यदि ब्लैक में टिकट खरीदनी पड़ी तो पता नहीं कितना पैसा लगेगा ।

एक हफ्ता गुजरा । उस दिन रविवार था, और उस फ़िल्म का पहला शो भी, जो दोपहर एक बजे होना था । काळू ने योजना बना ली थी, वही.... जिसमें उसे महारत हासिल थी, कि घर में किसी को पता भी ना चले और वो फ़िल्म भी देख आये । चूंकि अपनी इस योजना को वो पहले भी कई बार सफलता पूर्वक अंजाम दे चुका था इसलिए हौसला तो बुलंद था ही ।

काळू के घर से सिनेमा हॉल ज्यादा दूर नहीं था । अगर तेज कदमों से चलके कोई जाए तो लगभग छह से सात मिनट लगे । और काळू की चाल तो तब और भी तेज हो जाती थी यदि वो सिनेमा देखने जा रहा हो ।

काळू के लिए दूसरा वरदान ये था कि उसने अपने पढ़ने और आराम करने के लिए घर में बाहर वाला कमरा चुन रखा था ।

(ये तो हमें बाद में पता चला कि उसने वो कमरा ही क्यों चुना था ।)

उस कमरे में दो दरवाजे थे, एक घर के आंगन की तरफ खुलता था और दूसरा बाहर, घर के मुख्य दरवाजे के पास ।

उस वक्त करीब 11 बजने वाले थे । पिताजी दुकान गए हुए थे और माँ दुबारा खाना बना रही थी । पहले उसने पिताजी के लिए बनाया था और दोपहर के खाने के लिए टिफिन बनाकर पिताजी को दिया था ।

काळू अपने कमरे में बैठा क़िताबों पर जिल्द चढ़ा रहा था । तभी माँ की आवाज आई । वो उसे खाना खाने को बुला रही थी । काळू ने बड़े आराम से खाना खाया । फिर माँ ने जब तक खाना खाया तब तक करीब सवा बारह बज चुके थे ।

माँ रसोई में अन्य काम कर रही थी तब तक काळू बाहर बरामदे में ही बैठा माँ से बतिया रहा था । साढ़े बारह बजे तक माँ ने काम सलटा लिया और कुछ देर वो भी बरामदे में आ के बैठ गयी । गर्मी काफी थी ।

लगभग 12 बजकर 35 मिनट पर काळू उठा और माँ से कहा कि वो सोने जा रहा है । माँ ने भी कहा कि जा थोड़ा आराम करले, मैं भी थोड़ा आराम करूंगी ।

माँ अपने कमरे में चली गयी और काळू अपने कमरे में । माँ को सुनाते हुए उसने आंगन की तरफ वाले कमरे की चिटखनी आवाज के साथ लगाई ।

दस मिनट बाद उसने बाहर वाला दरवाजा धीरे से खोला और कान लगाकर कुछ सुनने की चेष्टा करने लगा । माँ के खर्राटे स्पष्ट सुनाई दे रहे थे । यही तो वो सुनना चाहता था । अब पूर्ण तसल्ली थी कि माँ को नींद आ गयी है और वो जनता था कि कम से कम चार बजे तक तो माँ सोएगी । फिर धीरे से दरवाजे को बाहर से खींच कर, बिना आवाज किये, बंद किया । और ये जा वो जा........ ।

भीषण गर्मी के बावजूद भी उसने सीधा सिनेमाहॉल पहुंच कर ही दम लिया । ब्लैकियों से थोड़ा मोलभाव करके साढ़े पांच रुपये में टिकट खरीदी और फ़िल्म शुरू होने से पहले काळू थिएटर के अंदर । काळू का प्लान आज भी काम कर रहा था ।

एक और खासियत भी थी उसमें की किसी भी फ़िल्म में इंटरवल कब होना है, ये उसे अंदाजा हो जाता था । इंटरवल भी उसकी योजना का एक हिस्सा जो होता था । "उस दिन भी" मध्यान्तर से ठीक पांच मिनट पहले वो उठा, हॉल से बाहर निकला, और तेजी से चल पड़ा वापस अपने घर की तरफ ।

(आप क्या सोच रहे हैं । उसने फ़िल्म आधी ही देखी । अरे नहीं जनाब.... कयास मत लगाइए, आगे आगे देखिए काळू की करामातें, जो जरा हटकर ही होती थी.... अजीबोगरीब)

ठीक छह मिनट बाद काळू घर पर था और खटपट की आवाज के साथ मटके से पानी का लोटा भर रहा था ।

योजनानुसार खुद ने पानी पी कर माँ को भी पानी के लिए पूछा । (जबकि उसे मालूम था कि माँ पानी का जग अपने पास रख कर ही सोती है) उसे तो बस माँ को ये जताना था कि वो घर पर ही है । अंदर से उनींदी आवाज में माँ से "नहीं चाहिए" सुनकर फिर वो कमरे में आया । अंदर वाला दरवाजा अंदर से बंद किया और बाहर वाले दरवाजे से फिर से छू...... ।

मध्यान्तर (इंटरवल) के बाद फ़िल्म शुरू हो कर करीब एक आध मिनट ही हुई होगी और वो वापस थिएटर में अपनी सीट पर था ।

मजे से पूरी फिल्म देख कर सवा चार बजे वो वापस घर पर अपने कमरे में था । और हमेशा की तरह ठीक साढ़े चार बजे मां ने दरवाजा खटखटाया तो दरवाजा खोलते समय हमारे काळू के चेहरे से बिल्कुल ऐसा लग रहा था जैसे वो अभी अभी नींद से जगा हो ।

माँ ने लाड़ से उस के माथे को पुचकार कर कहा, आजा बेटा, चाय पीते हैं ।

        ** ** ** **

शीघ्र ही फिर मिलते हैं दोस्तों । इस बार फिर अनूप शर्मा की एक और शानदार रचना के साथ, आखिर उनकी "चाहत" को आपने इतना पसंद जो किया था ।


काळू 

काळू का दूसरा रूप



जय हिंद

*शिव शर्मा की कलम से*









आपको मेरी ये रचना कैसी लगी दोस्तों । मैं आपको भी आमंत्रित करता हुं कि अगर आपके पास भी कोई आपकी अपनी स्वरचित कहानी, कविता, ग़ज़ल या निजी अनुभवों पर आधारित रचनायें हो तो हमें भेजें । हम उसे हमारे इस पेज पर सहर्ष प्रकाशित करेंगे ।.  Email : onlineprds@gmail.com

धन्यवाद

Note : Images and videos published in this Blog is not owned by us.  We do not hold the copyright.

No comments:

Post a Comment