Sunday 12 August 2018

गुड़िया

गुड़िया


नमस्कार दोस्तों । अनूप शर्मा द्वारा लिखित एक और सुंदर सी कविता "गुड़िया" पेश है, मेरा दावा है कि ये कविता आपको उनकी पिछली कविताओं से भी ज्यादा पसंद आएगी और आप हर बार की तरह इस बार भी अनूप शर्मा की खूब हौसलाअफजाई करेंगे ।




गुड़िया

लो जी
अब उसकी शादी हो गयी
वो जो कल तक गुड़िया थी
अपने पापा की
अब बन गयी है बहु
एक अजनबी घर की

जहा कोई नही जानता उसे
ना ही वो किसी को

भाई बहन सखियां
कितने तो थे वहां
छोड़ कर सबको
चली आयी किसी के एक के पीछे
साथ लिए आशाओ को

सौ बार कहने पर भी माँ के
नही कर पाती थी
कोई भी काम ढंग से
अब कर रही हर जतन
कि सब खुश रहे
उसकी वजह से

जिसे नही पता था
सूरज कब उगता है
कब चिड़िया चहकती है
उठ खड़ी होती है
रोशनी होने से पहले

माँ के घर मे
उसी की तो चलती थी
भाई बड़ा हो या छोटा
फर्क नही पड़ता
रौब तो वही रखती थी

अब सुनती है सबकी
चुपचाप
गलती या बिना गलती
फर्क नही पड़ता

शैतानियां जिसकी
हर रोज होनी थी
डांट पापा की फिर भी
भाई को ही खानी थी

करती है अभी भी
वैसे ही कई बार
मगर
कभी सपनो में
कभी यादों में

शादी, उत्सव
तीज त्योहार के क्षण
व्यस्त कर देते थे उसे
सजने से कहाँ फुरसत मिलती थी



अब कई रोज पहले
लग जाती है तैयारियों में
जिम्मेदारी जो निभानी है उसे

शरारतों में हो जाती थी
सुबह से शाम
उन दिनों में,
अब दिन गुजर जाता है,
शाम तो नही
हाँ रात हो जाती है

माँ की जरा सी डांट पर
आंसू तो जैसे
तब नाक पर रहते थे
फिर रुठ कर
हजारो मासूम शिकायतें
अपने पापा से
ना जाने क्यूं
पापा भी हर बार
उसी का तो पक्ष लेते
और दुलारकर, समझाकर
फिर मना लेते

अब कर लेती है सहन
सब कुछ
आंखों में छुपाए हुए
आंसुओ का समुंदर

रो लेती है कभी कभी
अकेले में
होंठो को सीले हुए
कि सिसकियां भी जिसकी
सुनाई नही देती ।

जय हिंद

*अनूप शर्मा की रचना*









आपको ये रचना कैसी लगी दोस्तों । मैं आपको भी आमंत्रित करता हुं कि अगर आपके पास भी कोई आपकी अपनी स्वरचित कहानी, कविता, ग़ज़ल या निजी अनुभवों पर आधारित रचनायें हो तो हमें भेजें । हम उसे हमारे इस पेज पर सहर्ष प्रकाशित करेंगे ।.  Email : onlineprds@gmail.com

धन्यवाद
शिव शर्मा


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