Tuesday 1 February 2022

ना जाने क्यूं

 ना जाने क्यूं 

Photo by Felipe Cespedes from Pexels


नमस्कार मित्रों । सर्वप्रथम तो आप सभी को अंग्रेजी नववर्ष की शुभकामनाएं ।


आज आपके लिए एक छोटी सी कविता ले कर आया हुं, जो वास्तव में एक ऐसे पिता के एहसास है जो दूर अकेला परदेस में बैठा है और स्वाभाविक है कि अपनों से दूर होने का एहसास उसे काफी खलता है ।


इस कविता की प्रेरणा भी मुझे मेरे एक सहकर्मी की बदौलत ही मिली । हुआ यूं कि कुछ दिन पहले जब हम मिले तो उसके चेहरे पर उदासी की कुछ लकीरें साफ दिख रही थी । मैंने पूछा कि क्या बात है भाई, आज घर वालों से बात नहीं हुई क्या, कुछ उदास दिख रहे हो । उसने दिखावटी मुस्कान के साथ कहा, भाई बस "घरवाली" से ही बात होती है, बाकि "घरवालों" को फुरसत ही कहाँ है बात करने को । कभी कभी मेरा जी चाहता है कि बच्चे भी मुझसे बात करे, मगर...... खैर छोड़ो, आप बताओ आप कैसे हो ।


शायद अनजाने में वो अपना दर्द बयां कर गया था लेकिन जब उसे लगा कि ये बात उसे नहीं करनी चाहिए थी तब वो औपचारिक बातों पर आ गया था । मगर मुझे लगा कि ये दर्द सिर्फ इसको ही नहीं और भी कई पिताओं को हो सकता है ।


तो इसी दर्द को एक कविता के रूप में दिखाने का प्रयास किया है । आशा है आप पसंद करेंगे और अगर ये कविता आपके दिल को छू जाए तो कृपया शेयर जरूर करें ।


ना जाने क्यूं

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वो सबकी सोचता है,

फिक्र करता है,

बात बात में

बच्चों का जिक्र करता है,


दूर परदेस में बैठा,

रोज पत्नी से,

उनके हाल पूछता है,

हर एक के लिए

बीसियों सवाल पूछता है,


रसोई में आज

क्या खास बनाया,

तुमने और बच्चों ने

क्या खाना खाया,


तुमने कहा था,

छोटे को थोड़ी हरारत सी है

डॉक्टर को दिखाया क्या,


बड़े की ऑफिस का कोई मसला था,

हल हुआ कि नहीं

कुछ बताया क्या,


बहु को जो कुर्ता पसंद था

वो उसे दिलाया क्या,

बेटी कल उदास क्यों थी

उसने बताया क्या,


पत्नी भी सब सवालों के

हंसकर जवाब दे देती है,

कहीं दुविधा हो

तो पति से राय ले लेती है,


परिवार की खुशियों के लिए

वक्त के हाथों मजबूर है,

बच्चों को कोई तकलीफ ना हो

इसलिए घर से दूर है,


ये विरह ये अकेलापन,

दोनों को खलता है,

पर बच्चों के लिए

दूर रहना भी चलता है,


और बच्चे.....

खुद में ही मस्त है,

कुछ काम हो या ना हो

फिर भी व्यस्त है,


अपनी ही दुनिया में मशगूल है,

शायद उनकी नजर में,

औपचारिकतायें फिजूल है,


बात करने की भी फुरसत नहीं,

हो सकता है,

शायद उन्हें लगता हो,

इसकी कोई जरूरत नहीं,


फिर भी ना जाने क्यूं

रोज उसे उम्मीद रहती है,

हर उगते सूरज के साथ

आशाएं जगती है,


ना जाने क्यूं,

उसके सपने भी ऐसे है,

कि आज

कोई पूछेगा उसको

पापा..... आप कैसे है ।।

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परदेसी बाबू


जल्दी ही फिर मिलते हैं एक नई रचना के साथ ।

*शिव शर्मा की कलम से*







आपको मेरी ये रचना कैसी लगी दोस्तों । मैं आपको भी आमंत्रित करता हुं कि अगर आपके पास भी कोई आपकी अपनी स्वरचित कहानी, कविता, ग़ज़ल या निजी अनुभवों पर आधारित रचनायें हो तो हमें भेजें । हम उसे हमारे इस पेज पर सहर्ष प्रकाशित करेंगे ।.  Email : onlineprds@gmail.com

धन्यवाद




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