Thursday 17 May 2018

Bachpan Ki Baate - Part - 2

बचपन की बातें (भाग 2)


वाह..... आनंद आ गया । भाग 1 आपने इतना पसंद किया उसके लिए धन्यवाद मित्रों । लीजिये ... बिना किसी भूमिका, बिना किसी लाग लपेट के बचपन की बातें का भाग 2 हाजिर है ।

बचपन में कहीं भी किसी भी राज्य, या ये कहुं तो अतिशयोक्ति नहीं होगी कि किसी भी देश में, बच्चे लगभग सब एक जैसी ही शरारतें करते हैं ।

मैनें यहां, नाइजीरिया में, ऑफिस में काम करने वाले एक नाइजीरियन लड़के को, जो उस वक्त खाने के लिए संतरा छील रहा था,और संतरे के छिलके को देख कर मुझे अपने बचपन की शरारत याद आ गयी, तो युं ही मैनें उस लड़के से पूछ लिया ।

उसने हंसते हुए बताया कि वे लोग भी बचपन में हमारी तरह संतरे के छिलके के रस को शरारत से एक दूसरे की आंखों में डालकर सामने वाले कि आंखों के जलने का आनंद लेते थे । शायद आप सबने भी ये शरारत निश्चित ही की होगी ।

मेरे एक अन्य मित्र ने बताया कि वो जब कभी च्युइंगम खाता था तो शुरू शुरू में मिठास देने के बाद च्युइंगम फीकी हो जाती थी । जैसा कि च्युइंगम का स्वभाव है ।

अब पापा से पैसे इतने ही मिलते थे कि हम एक ही च्युइंगम अफ़्फोर्ड कर सकते थे । तो पूरा पैसा वसूल करने हेतु उसी फीकी  च्युइंगम में, घर आके, च्युइंगम हथेली पर रखकर उसे गोल गोल करके उसमें थोड़ी सी चीनी मिलाते और फिर गपाक से खा जाते ।

ये मैनें भी किया था, जब पूछा तो साथ मे बैठे अन्य मित्रों ने भी हामी भरी, और मैं जानता हूं कि..... आपने भी ।

मुझे याद है जब गांव कस्बे में रामलीला का मंचन हुआ करता था । उस वक्त पूरा कस्बा राममय हो जाया करता था । बच्चों पर उसका प्रभाव कुछ ज्यादा ही दिखता था । हर घर में बच्चे राम, लक्ष्मण, हनुमान बने घूमते थे । उस समय आज की तरह कोई मोबाइल कम्प्यूटर या तरह तरह के खिलौने तो थे नहीं । अतः इस तरह के क्रिया कलाप ही मनोरंजन का साधन हुआ करते थे ।

हम खुद ही कारीगर होते थे । किसी पेड़ की लचीली टहनी को मोड़ कर उस पर रस्सी बांध लेते और बन जाता श्रीराम का धनुष । कभी किसी हल्की सख्त टहनी पर रस्सी बांध कर ऐसा महसूस करते थे जैसे हम भी श्रीराम के जैसे ही बलशाली हों ।

झाड़ू के तिनके के तीर बन जाते थे । माँ, दादी आश्चर्य करती कि कल झाड़ू इतनी मोटी थी आज पतली कैसे हो गई । वो तो बाद में पता चलता कि आज राम रावण युद्ध था और बेटा "राम" बना था । एवं झाड़ू वाले तिनकों के तीरों से उसने मेघनाद, कुम्भकर्ण और रावण आदि का वध किया था ।

हालांकि इस खेल में दुर्घटनावश अक्सर कोई ना कोई घायल भी हो जाता था । जोश जोश में गलती से तिनके वाला तीर रावण बने अपने ही मित्र को लग जाता ।

ये समस्या तो अक्सर होती थी कि हर कोई राम बनना चाहता था, खैर....इस समस्या का समाधान भी बाद में किरदारों के नामों की पर्चियों से हुआ करता था । तय हो जाता कि जिसके हाथ में जो पर्ची आएगी, वो आज उसी किरदार को निभाएगा । वैसे आज एक अफसोस होता है कि "काश ...... बड़े होकर भी हम राम नहीं तो थोड़ा बहुत राम जैसा बन पाते," ।

बारिश के दिनों में गली में जमा हुए घुटनों घुटनों पानी में किसी पांच सितारा होटल के स्वीमिंग पूल से भी ज्यादा आनंद आया करता था । उस वक्त हम कितने "अमीर" हुआ करते थे, हमारे "जहाज" जो पानी मे चला करते थे ।"




कटी पतंग लूटने के लिए तो बंदर से भी तेज छलांगें मार जाया करते थे । ये अलग बात है कि रात को मां झिड़कियां देते देते घुटनों पर मलहम लगाती और दीदी पैरों में चुभे कांटे निकालती थी ।

बाटा की वो हवाई चप्पल पहनकर कितना इतराते थे । अगर चप्पल नई होती तो खुद से ज्यादा हम चप्पल का ध्यान रखते थे । कभी कभी उस चप्पल के खो जाने पर जो लताड़ मिला करती थी, जिसने खाई है उन्हें याद होगा कि सब कोई अलग अलग क्लास लेते थे । दादा, दादी, पापा, मां, भैया, दीदी । शुकर है कि इन सब वकीलों से नानी बचा ले जाती थी वरना तो ये गैर जमानती जुर्म जैसा वाकया हुआ करता था ।

याद आता है बचपन,

वो साइकिल के पुराने टायरों को हाथों से धकेलते धकेलते बिना थके दूर तक भागते जाना,

वो कुत्ते की दुम में पटाखे बांध कर चला देना,

खाली पीरियड में मास्टरजी की जगह खड़े होकर उन्हीं की नकलें उतारना,

याद आती है दादी नानी की राजा रानी और परियों वाली कहानियां,

वो पापा के कंधों पर चढ़कर आसमान छू लेने की कल्पना करना,

छोटे भाई बहन को चिढाना, आम की गुठली पर अपना हक जताना,

वो पड़ौस वाले अंकल के साइकिल की हवा निकाल देना,

दिवाली की अगली सुबह पूरी गली में बिना फूटे फटाखे ढूंढना....

सब याद आता है ।

सच कहा है कहने वाले ने कि जिंदगी का सबसे खूबसूरत हिस्सा बचपन ही होता है । जवानी बहुत महंगी पड़ती है, आखिर इसे पाने के लिए हमें अपना बचपन जो खोना पड़ता है ।

नमस्कार दोस्तों । आशा है इसे पढ़कर आप को भी अपना बचपन याद आया होगा । अगर हां... तो मेरा लिखना सार्थक हुआ । अब मैं तो गुरदास मान पाजी का वो गीत सुनूंगा ।

बचपन चला गया,
ते जवानी चली गई,
जिंदगी दी कीमती
निशानी चली गई....... ।

जल्दी ही फिर मुलाकात होगी एक नई रचना के साथ । तब तक विदा मित्रों । अपना और अपनों का खयाल रखना ।

जय हिंद

*शिव शर्मा की कलम से*

"Bachpan Ki Baate - Part - 1"












आपको मेरी ये रचना कैसी लगी दोस्तों । मैं आपको भी आमंत्रित करता हुं कि अगर आपके पास भी कोई आपकी अपनी स्वरचित कहानी, कविता, ग़ज़ल या निजी अनुभवों पर आधारित रचनायें हो तो हमें भेजें । हम उसे हमारे इस पेज पर सहर्ष प्रकाशित करेंगे ।.  Email : onlineprds@gmail.com

धन्यवाद

Note : Images and videos published in this Blog is not owned by us.  We do not hold the copyright.



Saturday 5 May 2018

Bachpan Ki Baate - Part - 1


बचपन की बातें - भाग एक

unsplash-logoPhoto by Himesh Kumar Behera

आज घर पर बैठे शाम को टीवी देख रहे थे । एक सीरियल चल रहा था जिसमें सूत्रधार अपने पुराने दिनों की यादों के बारे में बताते हैं । सीरियल की खास बात तो ये थी कि उसे देखकर कई बार हमें भी ऐसा लगा कि ऐसा दृश्य तो हम भी अपनी आंखों से देख चुके हैं "उन बीते दिनों" । अफसोस तो इस बात का है कि आज की इस भागती दौड़ती जिंदगी में वो दृश्य लगभग लुप्त प्रायः से हो चुके हैं ।

खैर, सीरियल का असर ये हुआ कि उसे देखते देखते हम लोग भी अपने अपने बचपन में, अपनी पुरानी यादों में चले गए । फिर वही हुआ जो दोस्तों की महफ़िल जमने पर होता है । एक दौर शुरू हुआ बचपन की शैतानियों, नादानियों और शरारती किस्सों का ।

कमाल की बात तो ये थी कि प्रायः सभी के किस्से और बचपन की शरारतें लगभग लगभग एक जैसी ही थी, और आपस में मेल खा रही थी । यानि बचपन शायद सबका एकसा ही होता है ।



वे बिना सिर पैर की बातें भी कम से कम दो अढ़ाई घंटे तक चली थी । पर राज की बात बताऊं, मन प्रफुल्लित और हल्का हल्का हो गया था, उन यादों को याद करके ।  बहुत आनंद आया । कई बार तो लगा कि जैसे हम फिर से बच्चे ही बन गए थे ।

आप भी जानते हो कि उन दिनों (बचपन के) जब हम स्कूल से निकलते थे । सब भूल भाल जाते थे कि आज किस विषय के मास्टरजी ने क्या क्या होमवर्क दिया है ।

और तो और... गणित का होमवर्क अधूरा होने की वजह से तीसरे पीरियड के दौरान पूरी देर मुर्गा बने थे, और मारे दर्द के, कम से कम दो लीटर आंसू बहाए थे, वो मंजर भी दिमाग से साफ हो जाता था ।

फिर तो बस घर, और स्कूल जाते समय मित्रों के साथ सुबह बनाये हुए खेल कूद के "पिरोगराम" ही दिमाग मे रहते थे ।

मुझे याद है मेरे एक मित्र मदन, और भूगोल के मास्टरजी, की तो जैसे दिनचर्या में ही शामिल था । मदन रोज उनसे मार खाया करता था, क्योंकि जब तक मदन को उनकी दो चार बेंत नहीं पड़ती थी तब तक उसको भारत के नक्शे में दिल्ली दिखती ही नहीं थी । और इधर जैसे ही सटाक से हाथ पर बेंत की दो पड़ती उधर मदन को भोपाल और मद्रास भी दिख जाते थे । बाबूलाल तो अक्सर सौ गुणा दस का जवाब दस हजार बताया करता था ।

इस बात पर तो निश्चित ही आप भी हामी भरोगे कि स्कूल से घर आते ही थकावट की बजाय एक नई ऊर्जा का संचार शरीर में हो जाता था । सुबह जिस यूनिफार्म को पहनने में दस मिनट लगते थे वो शाम को दो मिनट में ही खुल जाया करती और साथ ही शरीर पर घर मे पहनने वाले वस्त्र धारण हो जाया करते थे । अगली पांच मिनट में रसोई में ही बैठकर माँ की डांट के साथ साथ मशीनी अंदाज में दो रोटियां भी खा लेते, उसके बाद तो ये जा वो जा ।

फिर कंचे, खो खो, कबड्डी या छुपम छुपाई जैसे खेल खेलते खेलते कब शाम गहरा जाया करती थी पता ही नहीं चलता था, और हम धूल भरे कपड़ों और बदन को झाड़ते हुए "कुछ साफ सुथरे" से बन कर बड़े भैया या पिताजी के घर आने से पहले घर पर आ जाते ।




मगर ये चीज उस वक्त किसी को भी कभी भी समझ में नहीं आ पाई कि भरपूर सावधानी बरतने के बावजूद भी पिताजी को कैसे पता चल जाता था कि आज हमने क्या क्या कारस्तानियां की है, किसको पीटा, किससे पिटे । किसके घर की डोरबेल बजाकर भाग गए थे । किसकी साइकिल की हवा निकाल दी थी, वगैरह वगैरह ।

शामत तो तब आती थी जब हमारे द्वारा किये गए कारनामों की लंबी सी फेहरिश्त के साथ सवाल पर सवाल आते । उस वक्त पिताजी के सामने सर झुकाए संसार के सबसे मासूम बच्चे हम ही हुआ करते थे । और क्या कमाल के घड़ियाली आंसू बहते थे अपनी आंखों से ।

हमारी उस मासूमियत पर अक्सर माँ का दिल पसीज जाया करता था और वो हमें पिताजी की अदालत से "चेतावनी के साथ" बाइज्जत बरी करवा देती थी । कभी कभी तो हमें लगता था कि अगर आज माँ नहीं बचाती तो पिताजी सच में ही घर से निकाल देते ।

बाद में हम मन ही मन ये ठाना करते थे कि कल से ऐसा बिल्कुल ही नही करेंगे । मगर रात भर की सुकून भरी सुहानी नींद सब कुछ भुलवा देती और अगले दिन अपनी वही दिनचर्या हुआ करती थी ।

एक और बात, साइकिल सीखने के लिए मेरे खयाल से सभी ने अपने घुटने जरूर फूडवाये होंगे । ऊंचाई से चली साइकिल आके गली में लगे बिजली के खंभे से धड़ाम से टकराती थी और हम गिर के फिर से बहादुर सिपाही की तरह उठकर वही कारनामा दोहराते थे । ये अलग बात थी कि बाद में कुछ दिनों के लिये भैया "साइकिल छूने पर भी" पाबंदी लगा दिया करते थे ।

आज बातें करते करते हमारे एक मित्र ने अपने बचपन का एक बड़ा मजेदार किस्सा सुनाया कि एक बार वो बाजू वाले दूसरे मोहल्ले के किसी विवाह समारोह में बिना बुलाये ही घुस गया था, गुलाबजामुन और रसगुल्ले उड़ाने के लालच में । लड़की के पिता ने उसे बादाम की बर्फी पर हाथ साफ करते वक्त रंगे हाथों पकड़ लिया था । फिर तो बेचारा रात को दस बजे तक पानी का जग हाथ में लिए बारातियों को घूम घूम के पानी पिला रहा था । घर आने पर पुरस्कार स्वरूप पिताजी के फटके पड़े थे वो अलग । बस संतुष्ठी इस बात की थी कि पकड़े जाने से पहले जी भर के शरबत, जलेबियां, गुलाबजामुन और बरफी गटका चुके थे ।

*क्षमा चाहूंगा मित्रों, बातें ज्यादा है और जगह कम, इसलिए "बचपन की बातें" हम दो पार्ट में करेंगे । भाग 2 में आपके लिए मैं लाऊंगा कुछ अपने और कुछ जो आज पता चले उन मित्रों के किस्से..... जो आपको गुदगुदाएंगे, हसाएंगे और ले जाएंगे आपको अपने बचपन में । बहुत जल्द बचपन की बातें का भाग 2 लेकर आ रहा हुं तब तक के लिए विदा मित्रों ।*

जय हिंद

Utsav Ki Vela


*शिव शर्मा की कलम से*










आपको मेरी ये रचना कैसी लगी दोस्तों । मैं आपको भी आमंत्रित करता हुं कि अगर आपके पास भी कोई आपकी अपनी स्वरचित कहानी, कविता, ग़ज़ल या निजी अनुभवों पर आधारित रचनायें हो तो हमें भेजें । हम उसे हमारे इस पेज पर सहर्ष प्रकाशित करेंगे ।.  Email : onlineprds@gmail.com

धन्यवाद

Note : Images and videos published in this Blog is not owned by us.  We do not hold the copyright.