बचपन की बातें (भाग 2)
वाह..... आनंद आ गया । भाग 1 आपने इतना पसंद किया उसके लिए धन्यवाद मित्रों । लीजिये ... बिना किसी भूमिका, बिना किसी लाग लपेट के बचपन की बातें का भाग 2 हाजिर है ।
बचपन में कहीं भी किसी भी राज्य, या ये कहुं तो अतिशयोक्ति नहीं होगी कि किसी भी देश में, बच्चे लगभग सब एक जैसी ही शरारतें करते हैं ।
मैनें यहां, नाइजीरिया में, ऑफिस में काम करने वाले एक नाइजीरियन लड़के को, जो उस वक्त खाने के लिए संतरा छील रहा था,और संतरे के छिलके को देख कर मुझे अपने बचपन की शरारत याद आ गयी, तो युं ही मैनें उस लड़के से पूछ लिया ।
उसने हंसते हुए बताया कि वे लोग भी बचपन में हमारी तरह संतरे के छिलके के रस को शरारत से एक दूसरे की आंखों में डालकर सामने वाले कि आंखों के जलने का आनंद लेते थे । शायद आप सबने भी ये शरारत निश्चित ही की होगी ।
मेरे एक अन्य मित्र ने बताया कि वो जब कभी च्युइंगम खाता था तो शुरू शुरू में मिठास देने के बाद च्युइंगम फीकी हो जाती थी । जैसा कि च्युइंगम का स्वभाव है ।
अब पापा से पैसे इतने ही मिलते थे कि हम एक ही च्युइंगम अफ़्फोर्ड कर सकते थे । तो पूरा पैसा वसूल करने हेतु उसी फीकी च्युइंगम में, घर आके, च्युइंगम हथेली पर रखकर उसे गोल गोल करके उसमें थोड़ी सी चीनी मिलाते और फिर गपाक से खा जाते ।
ये मैनें भी किया था, जब पूछा तो साथ मे बैठे अन्य मित्रों ने भी हामी भरी, और मैं जानता हूं कि..... आपने भी ।
मुझे याद है जब गांव कस्बे में रामलीला का मंचन हुआ करता था । उस वक्त पूरा कस्बा राममय हो जाया करता था । बच्चों पर उसका प्रभाव कुछ ज्यादा ही दिखता था । हर घर में बच्चे राम, लक्ष्मण, हनुमान बने घूमते थे । उस समय आज की तरह कोई मोबाइल कम्प्यूटर या तरह तरह के खिलौने तो थे नहीं । अतः इस तरह के क्रिया कलाप ही मनोरंजन का साधन हुआ करते थे ।
हम खुद ही कारीगर होते थे । किसी पेड़ की लचीली टहनी को मोड़ कर उस पर रस्सी बांध लेते और बन जाता श्रीराम का धनुष । कभी किसी हल्की सख्त टहनी पर रस्सी बांध कर ऐसा महसूस करते थे जैसे हम भी श्रीराम के जैसे ही बलशाली हों ।
झाड़ू के तिनके के तीर बन जाते थे । माँ, दादी आश्चर्य करती कि कल झाड़ू इतनी मोटी थी आज पतली कैसे हो गई । वो तो बाद में पता चलता कि आज राम रावण युद्ध था और बेटा "राम" बना था । एवं झाड़ू वाले तिनकों के तीरों से उसने मेघनाद, कुम्भकर्ण और रावण आदि का वध किया था ।
हालांकि इस खेल में दुर्घटनावश अक्सर कोई ना कोई घायल भी हो जाता था । जोश जोश में गलती से तिनके वाला तीर रावण बने अपने ही मित्र को लग जाता ।
ये समस्या तो अक्सर होती थी कि हर कोई राम बनना चाहता था, खैर....इस समस्या का समाधान भी बाद में किरदारों के नामों की पर्चियों से हुआ करता था । तय हो जाता कि जिसके हाथ में जो पर्ची आएगी, वो आज उसी किरदार को निभाएगा । वैसे आज एक अफसोस होता है कि "काश ...... बड़े होकर भी हम राम नहीं तो थोड़ा बहुत राम जैसा बन पाते," ।
बारिश के दिनों में गली में जमा हुए घुटनों घुटनों पानी में किसी पांच सितारा होटल के स्वीमिंग पूल से भी ज्यादा आनंद आया करता था । उस वक्त हम कितने "अमीर" हुआ करते थे, हमारे "जहाज" जो पानी मे चला करते थे ।"
कटी पतंग लूटने के लिए तो बंदर से भी तेज छलांगें मार जाया करते थे । ये अलग बात है कि रात को मां झिड़कियां देते देते घुटनों पर मलहम लगाती और दीदी पैरों में चुभे कांटे निकालती थी ।
बाटा की वो हवाई चप्पल पहनकर कितना इतराते थे । अगर चप्पल नई होती तो खुद से ज्यादा हम चप्पल का ध्यान रखते थे । कभी कभी उस चप्पल के खो जाने पर जो लताड़ मिला करती थी, जिसने खाई है उन्हें याद होगा कि सब कोई अलग अलग क्लास लेते थे । दादा, दादी, पापा, मां, भैया, दीदी । शुकर है कि इन सब वकीलों से नानी बचा ले जाती थी वरना तो ये गैर जमानती जुर्म जैसा वाकया हुआ करता था ।
याद आता है बचपन,
वो साइकिल के पुराने टायरों को हाथों से धकेलते धकेलते बिना थके दूर तक भागते जाना,
वो कुत्ते की दुम में पटाखे बांध कर चला देना,
खाली पीरियड में मास्टरजी की जगह खड़े होकर उन्हीं की नकलें उतारना,
याद आती है दादी नानी की राजा रानी और परियों वाली कहानियां,
वो पापा के कंधों पर चढ़कर आसमान छू लेने की कल्पना करना,
छोटे भाई बहन को चिढाना, आम की गुठली पर अपना हक जताना,
वो पड़ौस वाले अंकल के साइकिल की हवा निकाल देना,
दिवाली की अगली सुबह पूरी गली में बिना फूटे फटाखे ढूंढना....
सब याद आता है ।
सच कहा है कहने वाले ने कि जिंदगी का सबसे खूबसूरत हिस्सा बचपन ही होता है । जवानी बहुत महंगी पड़ती है, आखिर इसे पाने के लिए हमें अपना बचपन जो खोना पड़ता है ।
नमस्कार दोस्तों । आशा है इसे पढ़कर आप को भी अपना बचपन याद आया होगा । अगर हां... तो मेरा लिखना सार्थक हुआ । अब मैं तो गुरदास मान पाजी का वो गीत सुनूंगा ।
बचपन चला गया,
ते जवानी चली गई,
जिंदगी दी कीमती
निशानी चली गई....... ।
जल्दी ही फिर मुलाकात होगी एक नई रचना के साथ । तब तक विदा मित्रों । अपना और अपनों का खयाल रखना ।
जय हिंद
*शिव शर्मा की कलम से*