बिटिया
नमस्कार मित्रों । इस बार फिर एक छोटी सी कविता ले कर आया हुं । कैसी लगी जरूर बताना ।
बिटिया
समय कितनी जल्दी भागता है
जैसे पंख लगे हो इसे
परिंदों की तरह
फुर्र से उड़ जाता है
कल की सी बात लगती है
जब छोटी सी गुड़िया
अपनी तुतलाती सी
मीठी मीठी बोली से
हमें पुकारती थी
नन्हे नन्हे पैरों में
छोटी छोटी पायल छनकाती
इठलाती सी
घर भर में दौड़ती थी
पीछे से चुपके से आकर
नन्हे नन्हे कोमल हाथों से
हमारी आंखें बंद कर के
खनकती सी हंसी हंसती थी
उसकी मासूम शैतानियां
कितनी लुभावनी थी
कितनी मनमोहक थी
और कितनी सुहावनी थी
दादाजी के साथ
रोज शाम को बगीचे में जाना
अपनी ही समझ से
दादी के लिए
कुछ खिले कुछ अधखिले
पूजा के लिए फूल ले आना
मास्टर जी को कुछ आता नहीं
सब मुझसे ही पूछते हैं
जैसी मासूम बातें थी
स्कूल के दिनों में अक्सर
मास्टरजी की ही शिकायतें थी
वक्त अपनी आदतानुसार
चलता रहा, छलता रहा
हर रोज सूरज उगता
और ढलता रहा
पता ही नहीं चला
बिटिया कब स्कूल से
कॉलेज में आ गई
बचपन की शैतानियों की जगह
स्वभाव में
परिपक्वता आ गई
अब वो घर के काम में
माँ का हाथ बंटाने लगी थी
दादाजी की छड़ी बनकर
उन्हें बगीचे में ले जाने लगी थी
वक्त तो जैसे
पंख लगा के उड़ता रहा
उम्र की इस गणित में
एक एक साल जुड़ता रहा
समय के साथ
बिटिया सयानी हो गई
उसके ब्याह की चिंता में
व्याकुल दादी नानी हो गई
अच्छे घर का रिश्ता आया
झटपट सगाई हो गई
फिर कुछ दिनों बाद
उसकी विदाई हो गई
बीस साल पाली पोसी
मेरी अपनी बिटिया
एक पल में
पराई हो गई
अधभिगी मगर मुस्कुराती
उन आंखों की पीड़ा को
कौन पहचानता है
बेटी को विदा करने का दर्द तो
एक पिता ही जानता है ।।
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जय हिंद
*शिव शर्मा की कलम से*
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