मजदूर
रविवार का दिन था और ठिठुराती हुई सुबह के उस वक्त लगभग आठ बज रहे थे । ठंड इतनी कि अगर खुला बदन हो तो रगों का खून जमा दे ।
इतने में बाहर से आवाज आती है....... दूध....... शायद बिरजू दूध लेकर आ गया, सर्दियों में आठ बजे तक आता है मगर गर्मी के मौसम में साढ़े छह का समय है इसका । बबलू की मम्मी रसोई में से बर्तन लेकर दूध लेती है ।
कई लोग तो अभी भी रजाइयों में दुबके पड़े हैं । जो उठ गए, वे आग के पास हाथ सेक कर इस सर्दी में नहाने के लिए खुद को तैयार कर रहे हैं । वाकई इस सर्दी में नहाना भी बहादुरी का ही काम है ।
तभी टपाक से घर के दरवाजे के ऊपर से उड़ता हुआ अखबार आकर गिरता है । जिसे उठाकर बबलू दादाजी को उनके कमरे में दे आता है । अब दादाजी रजाई में दुबके दुबके पूरा अखबार पढ़ डालेंगे ।
बाहर से साइकिल की घंटी की आवाज आती है, ये ब्रेड बिस्किट बेचने वाला मुन्ना है जो गली गली साइकिल पर घूम कर अपनी रोजी रोटी कमाता है ।
तभी एक और आवाज कानों में पड़ती है......
"सब्जी ले लो सब्जी ई ई ई.... ताजा सब्जी......"
माली काका आ गए ताजा सब्जियां ले के । आवाज और खुद दोनों कांप रहे है पर रोज इस समय वे हमारी गली में पहुंच ही जाते हैं ।
माली काका से सब्जियां खरीदने का काम पापा करते हैं, दोनों हमउम्र जो हैं, काम के साथ थोड़ा हंसी ठट्ठा भी कर लेते हैं ।
कोहरा थोड़ा सा छंट गया है, धूप की किरणें सर्दी की इस धुंध से जद्दोजहद कर रही है धरती तक आने के लिए । यूं लगता है जैसे इस ठंड ने सूर्यकिरणों को भी जमा दिया है ।
"अरे बहु, चाय तो पिला दो, बड़ी ठंड है आज तो" पापा ने रोज वाली बात आज फिर दोहरा दी । कहते हैं सर्दी में ये अदरक वाली चाय पीने का आनंद ही अलग है ।
"आपका काम हुआ नहीं क्या अभी तक, ज्यादा है तो मदद करूं ?" चाय के कप लिए पत्नी कमरे में आई, और हंसते हुए बोली ।
"नहीं हो गया, तुम तो बस गर्मा गरम चाय पिला दो" मैनें भी मुस्कुराते हुए जवाब दिया और हम दोनों ने रोज की तरह साथ बैठ कर चाय पी ।
पिछले एक घंटे में मैनें दुकान का एक हफ्ते का हिसाब मिला लिया और खाता बही वापस यथास्थान रखी । आज रविवार था तो दुकान देरी से ही खोलनी थी ।
चाय पीकर मैं रजाई की गरमाहट का मोह छोड़कर बाहर आया । गली में इक्का दुक्का लोग ही दिखाई दे रहे थे । समय लगभग पौने नो हो गया था । धूप अभी भी निकलने को छटपटा रही थी, कोहरा उसकी राह में रोड़े डाल रहा था ।
गली के नुक्कड़ वाली सामने की ढलान से गोपाल आता दिखाई दिया । गोपाल बाजार में माल ढुलाई का काम करके अपना परिवार चलाता है ।
"भाईजी नमस्ते" वो पास आकर बोला ।
"नमस्ते भाई गोपाल, क्या बात है, इतनी सुबह सुबह कहां चल दिये इस सर्दी में । आज तो बाजार भी देर से और आधा ही खुलेगा ।" मैंने एक साथ उससे दो तीन सवाल कर डाले ।
"भाईजी, वो बंसल साब की गोदाम के बहुत से माल को उनकी दूसरी गोदाम में स्थानांतरित करना है इसलिए उन्होंने कल ही कह दिया था सुबह नो सवा नो बजे तक आने को ।" गोपाल ने बताया ।
"अच्छा, पर ये काम तो दोपहर में भी हो सकता था, इतनी सर्दी में तुमको दौड़ा दिया बंसल जी ने, वो भी रविवार को । थोड़ा अपना भी ध्यान रखो भाई ।"
"जी वो उनका कोई नया माल पहुंचने वाला है आज 12 बजे तक, इसलिए उन्होंने कल ही बोल दिया था, और मजदूरी भी ज्यादा देंगे ।"
रही बात सर्दी और रविवार की, तो एक मजदूर के लिए क्या सर्दी और क्या रविवार भाईजी । परिवार चलाने के लिए इन सबको नजरंदाज करना पड़ता है एक मजदूर को । अच्छा भाईजी, अब चलता हूं, देर हो रही है । नमस्ते ।"
एक ही सांस में गोपाल इतनी सारी बात कर गया, और मुझे सोचने पर मजबूर कर गया कि सच ही तो है, एक मजदूर के लिए मौसम या वार कोई मायने नहीं रखता । चाहे वो बिरजू हो, अखबार वाला राजू हो, मुन्ना हो या माली काका । अपनी सीमित कमाई में वे एक भी दिन कैसे व्यर्थ गवां सकते है । आखिर पेट का सवाल है ।
"ए माई...... कोई ठंडी बासी रोटी दे ए........... भूख लगी है" दो 12 तेरह साल के गरीब भिक्षुक भाई बहन पड़ोस वाले घर के दरवाजे पर उम्मीद से आवाज लगा रहे थे ।
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जल्दी ही फिर मिलते हैं दोस्तों । ये कहानी आपको कैसी लगी, जरूर बताना । और हां, सर्दी वाकई काफी है । अदरक वाली चाय पर विशेष ध्यान रखना ।
पहले तो तुम ऐसे ना थे
जय हिंद
*शिव शर्मा की कलम से*
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