थपकी
नमस्कार मित्रों । अतिव्यस्तता के कारण पिछले कुछ दिनों से कुछ लिखने को समय नहीं निकाल पाया, उसके लिए आपसे क्षमा प्रार्थी हूँ । कुछ मित्रों ने "माँ" पर एक कविता लिखने की चाह की, आपका धन्यवाद कि आपने संसार के सबसे खूबसूरत विषय माँ पर कुछ लिखने के लिए मुझे प्रेरित किया । आगे भी आपकी प्रेरणाएं मिलती रहे तो मैं जरूर प्रयास करूंगा उन विषयों पर लिखने का ।
जैसा कि मैंने अपने पहले के एक ब्लॉग में भी लिखा था कि माँ पर जितना लिखा जाए कम है, ये तो अनंत है । सभी सीमाएं ख़त्म हो सकती है परंतु "माँ" शब्द की सीमाएं सभी सीमाओं से परे है ।
आपकी भावना का सम्मान रखते हुए मैंने इसी विषय पर ये कविता "थपकी" लिखने का प्रयास किया है । आपकी हौसला आफजाई मेरे लिए संजीवनी का सा काम करती है अतः यदि ये "थपकी" आपको अच्छी लगे तो मुझे जरूर बताएं ।
थपकी
थपक थपक कर प्यार से मीठी लोरी मधुर सुनाती थी,
हमें सुलाती सूखे पर खुद गीले पर सो जाती थी,
भूख से व्याकुल बच्चा, आधी रात को भी गर रोता था,
थकी हुई होने पर भी माँ, आँख तेरी खुल जाती थी,
मेरे हाथों की हर ऊँगली, से है मुझको प्यार बड़ा,
जाने कौनसी ऊँगली पकड़कर माँ चलना सिखलाती थी,
माँ तेरे आँचल में था सारी, दुनिया का सुख छुपा हुआ,
वीणा सी बज उठती थी, तू जब भी लोरी गाती थी,
बचपन के नटखटपन में गर, भूल कोई हम कर देते तो,
प्यार भरी उस डांट डपट से सीख हमें सिखलाती थी,
यौवन के मद में अंधे हम, राह कहीं ना भटक जायें,
ऊंच नीच सिखलाती, संस्कारों का पाठ पढ़ाती थी,
बड़े हो गए थे हम फिर भी, माँ को बच्चा लगते थे,
कॉलेज से घर आते थे तब कितने लाड़ लडाती थी,
माँ के लिए तो सारे बच्चे हिस्सा जिगर का होते हैं,
पीर किसी को भी होती, आँखें माँ की भर आती थी,
जीवन में कुछ बनने को घर छोड़ भये परदेशी जब,
माँ की दुआएं ही तो थी जो पग पग साथ निभाती थी,
उन्ही दुआओं के साए में चढ़े सफलता की सीढ़ी,
देख प्रगति बच्चों की माँ मन ही मन हर्षाती थी,
"खूब कमाई दौलत, घर में भी सब सुख के साधन है,
फिर भी एक बैचैनी सी है, व्याकुल व्याकुल सा ये मन है,
वातानुकूलित कमरा है और, बिस्तर भी गद्देदार मगर,
नींद नहीं है आँखों में, कुछ जीवन में सूनापन है,"
बूढ़ी माँ की गोद में लेटे तब ये बात समझ आई,
मीठी नींद तो माँ की मीठी थपकी से ही आती थी,
मीठी नींद तो माँ की लोरी सुनने से ही आती थी ।।
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चलते चलते मशहूर शायर ज़नाब मुनव्वर राणा साहब का एक खूबसूरत शेर :-
"मुझे बस इस लिए अच्छी बहार लगती है
कि ये भी माँ की तरह ख़ुशगवार लगती है"
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जय हिंद
*शिव शर्मा की कलम से***
आपको मेरी ये रचना कैसी लगी दोस्तों । मैं आपको भी आमंत्रित करता हुं कि अगर आपके पास भी कोई आपकी अपनी स्वरचित कहानी, कविता, ग़ज़ल या निजी अनुभवों पर आधारित रचनायें हो तो हमें भेजें । हम उसे हमारे इस पेज पर सहर्ष प्रकाशित करेंगे ।. Email : onlineprds@gmail.com
धन्यवाद
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Very nice sir ji
ReplyDeleteWell Written
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