जिंदगी
नमस्कार मित्रों । इस बार फिर एक छोटी सी ग़ज़ल लिखने की कोशिश की है, आशा है ये ग़ज़ल भी आपको जरूर पसंद आएगी ।
जिंदगी
लम्हा लम्हा पिघल रही है जिंदगी
पल पल रंगत बदल रही है जिंदगी
हवा है, रोशनी है, मुट्ठी की रेत है
पकड़ के रख, फिसल रही है जिंदगी
तूफानों का क्या है आते रहते है
डगमगाकर फिर सम्भल रही है जिंदगी
सुबह से शाम, रात ओ दिन
गेंद की तरह उछल रही है जिंदगी
सुकून है कि थक कर रुकी नहीं है
धीमे ही सही, चल रही है जिंदगी
पता नहीं ये चांद है कि सूरज
हर रोज ढल रही है जिंदगी
आंखों में कहीं तो खाबों में कहीं
जाने कहां कहां पल रही है जिंदगी
इबादत, मुहब्बत, बगावत, शराफत
हर एक सांचे में ढल रही है जिंदगी
निखर उठी थी मुहब्बतों के साये में
नफरतों के चलते जल रही है जिंदगी
पता है इसे आखिरी अंजाम का
फिर भी खुद को, छल रही है जिंदगी ।।
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जल्दी ही फिर मिलते हैं दोस्तों । इस ग़ज़ल के बारे में अपने विचार जरूर बताना ।
जय हिंद
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*शिव शर्मा की कलम से*
Lajwaab sir ji
ReplyDeleteवाह, क्या लिखा है!
ReplyDeleteNice Sharma ji
ReplyDeleteVery nice. True saying sharmaji
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