मनहूस - Ashubh
"दीनू जरा कूलर चालु कर दे तो, बहुत गर्मी है" मोहनलाल ने कमरे से बेटे को आवाज लगाई ।
"जी पिताजी" दीनू ने कहा और जैसे ही कूलर का स्विच ऑन किया की बिजली चली गयी । पता नहीं क्यूं पिताजी दीनू पर भड़क उठे ।
"मेरा दिमाग ख़राब हो गया था जो मैंने तुझे कूलर चलाने को कह दिया, भूल गया था की तू तो है ही पनौती, इससे अच्छा मैं खुद ही कर लेता ।"
"और नहीं तो क्या" रसोई से दीनू की सौतेली मां की आवाज आई । "ये तो है ही मनहूस, पैदा होते ही तो अपनी मां को खा गया था, अभी कूलर चालू करने को कहा तो बिजली ही चली गयी, अब कूलर तो दूर पंखा भी नहीं चलेगा, मनहूस कहीं का ।" सौतेली मां ने पिताजी की बात का समर्थन किया ।
देखा जाए तो गांव में बिजली का आना जाना आम बात थी, मगर इस वक्त बिजली के जाने के पीछे दीनू को कसूरवार ठहराया जा रहा था, तथा "पैदा होते ही तो अपनी मां को खा गया" जैसी बात का यहां कोई संबंध ना होते हुए भी ताना मारा जा रहा था ।
ये कोई नई बात नहीं थी । दीनू इस तरह के ताने सुन सुन कर ही बड़ा हुआ था । अब तो उसे आदत सी हो गयी थी । पंद्रह वर्ष की आयु में ही वो काफी परिपक्व हो चूका था ।
जिस दिन उसका जन्म हुआ था उसके थोड़ी देर बाद ही उसकी मां चल बसी थी । जिसके पीछे वजह उस बेचारी की शारीरिक कमजोरी थी । गर्भावस्था के दौरान डॉक्टर ने कहा भी था कि ये बहुत कमजोर है और इस अवस्था में बच्चे को जन्म देना इसके लिए जानलेवा साबित हो सकता है । मगर परिवार वाले नहीं माने, उन्हें घर में नन्ही किलकारियां सुननी थी, नतीजा ये हुआ कि इधर दीनू दुनिया में आया, उधर उसकी मां दुनिया छोड़ गयी ।
मां तो चली गई मगर उस नन्हे से बालक को मनहूसियत का ख़िताब दे कर, जो अभी अभी दुनिया में आया था ।
जन्मते ही वो सबकी आँखों में खटकने लगा था । पिताजी ने तो कभी उसे प्यार से गले भी नहीं लगाया था । शुरू के चार पांच साल उसकी नानी और मौसी ने उसे पाला । कभी कभी उसके दादा दादी उसे कुछ दिनों के लिए अपने पास ले आया करते थे ।
इस बीच मोहनलाल ने दूसरी शादी करली, लेकिन संयोग से दूसरी पत्नी को संतान नहीं हो रही थी । दादा दादी के जोर देने पर पांच साल के दीनू को मोहनलाल अपने घर ले आया था और स्कूल में दाखिला भी करवा दिया । अब तो दादा दादी भी स्वर्ग सिधार चुके थे ।
जिस दिन मोहनलाल दीनू को स्कूल में दाखिल करवाके स्कूल से बाहर निकला, दूसरी तरफ से आ रहे किसी साईकिल सवार का संतुलन बिगड़ा और वो बीच सड़क पर लापरवाही से चल रहे मोहनलाल से आ टकराया । मोहन को थोड़ी बहुत चोट भी लग गयी । इस घटना का ठीकरा भी अंतपंत दीनू के सर पर ही फूटा और उसी के पिता व् सौतेली मां ने कोई कसर नहीं छोड़ी उसे मोहल्ले में मनहूस साबित करने में । शायद इसी वजह से उसके दोस्त भी कम थे ।
इस तरह की कोई भी घटना यदि गली मोहल्ले में भी होती और यदि संयोग से दीनू वहां होता तो अक्सर अड़ोसी पडोसी भी दीनू को जलीकटी सुना देते थे । दीनू बेचारा सबकुछ चुपचाप सुन लेता था क्योंकि जो उसका साथ दे सकते थे वो परिवार वाले भी तो उनके सामने ही उसे झिड़कते रहते थे ।
समय के साथ साथ दीनू बड़ा होता गया । पिताजी ताने मार मार के उसकी स्कूल फीस भर दिया करते थे ।
पढाई में दीनू होशियार था, हर बार अच्छे अंकों से पास होता था । क्योंकि बचपन से ही उसे ज्यादा आजादी नहीं थी, और मन बहलाने कहीं जाना भी चाहे तो कहां जाता । माथे पर मनहूसियत की मोहर जो लगी थी । इसलिए अपना पूरा वक्त वो पढाई में ही लगाता था । पढाई की किताबों के अलावा वो दादाजी के पुस्तक संग्रह में से उनकी ज्ञानवर्धक पुस्तकें भी पढ़ लिया करता था ।
"मैं जरा बाज़ार जा के आ रहा हुं ।" पिताजी की आवाज सुनकर दीनू जैसे नींद से जागा । लेकिन पिताजी ने ये बात उसकी सौतेली मां से कही थी । जब तक दीनू समझता पिताजी घर से निकल चुके थे ।
वो फिर अपनी पढाई में लग गया । अचानक घर के पिछवाड़े से उसको अपनी सौतेली मां की चीख सुनाई दी जहा वो गाय का दूध दुहने गयी थी । दीनू भागकर पीछे गया तो देखा मां अपना एक हाथ दूसरे हाथ से पकडे सांप सांप चिल्ला रही थी । दीनू की नजर उनके दाए हाथ पर पड़ी तो देखा उस पर सांप के काटने का जख्म था ।
दीनू ने फुर्ती से पास ही तार पर सूख रहे पिताजी के पायजामे का नाड़ा निकाला और मां के हाथ पर जहां सांप ने काटा था उस से थोडा ऊपर कस कर बाँध दिया, साथ ही ऊंची आवाज में अपने पड़ोसियों को भी आवाजें लगाने लगा । वो डर से कांप रही मां को सहारा देकर आँगन में पड़ी चारपाई तक ले आया और उनका हाथ पकड़ कर सांप का जहर अपने मुंह से खींचने लगा । तब तक पडोसी भी जमा हो चुके थे और डॉक्टर को स्तिथि बता कर तुरंत आने के लिए फ़ोन भी कर दिया था ।
दीनू मां के जख्म से जहर भी खिंच रहा था और साथ ही उनका हौसला भी बढ़ा रहा था, मां घबराओ मत अभी डॉक्टर साहब आ जायेंगे । आपको कुछ नहीं होगा ।
मां पर बेहोशी सी छाने लगी थी इतने में डॉक्टर भी आ गए । उन्होंने जब ये दृश्य देखा कि मां के हाथ पर नाड़े की रस्सी बंधी है और दीनू उनका जहर निकाल रहा है तो तुरंत उन्होंने साथ में आई नर्स को दीनू को भी कोई दावा देने को कहा और फिर उसकी मां की जांच करने लगे । तब तक मोहनलाल भी हड़बड़ाया सा घर में घुसा ।
"क्या हुआ कौशल्या, तुम ठीक तो हो ना । डॉक्टर साब मेरी पत्नी ठीक है ना," जैसे सवालों की झड़ी लगादी । उधर दीनू उल्टियां कर रहा था उसके बारे में उसने एक शब्द भी नहीं पूछा । दीनू को शायद डॉक्टर ने उल्टी करवाने वाली दवा दी थी ताकि अगर जहर उसके पेट में गया हो तो निकल जाए ।
"अरे अरे मोहनजी, घबराइये मत । आपकी पत्नी और बेटा दोनों ठीक है । बड़ा समझदार बच्चा है आपका । प्रथम उपचार तो इसने ही कर दिया था । जिस वजह से सांप का जहर शरीर में चढ़ने ही नहीं पाया । शाबाश बेटे, परंतु तुमने कहाँ से सीखा ये सब? और तुम्हे डर नहीं लगा की जहर से तुम्हे भी खतरा हो सकता था।" डॉक्टर साब ने कहा तो सब अचंभित से दीनू को देखने लगे । तब तक वो सामान्य हो चूका था ।
"जी एक पुस्तक में पढ़ा था, और डर कैसा, अपनी मां के लिए तो बेटा कुछ भी कर जाये, अपने संभावित खतरे के डर से मैं अपनी मां को तड़फते हुए कैसे देखता ।" दीनू का जवाब सुनकर डॉक्टर ने उसकी पीठ थपथपाई ।
"हां तो मोहनजी, अभी मैंने दवा दे दी है, चिंता वाली कोई बात नहीं है । बस ये कुछ दवाइयाँ ले आइये जो कुछ दिन इनको खानी है जब तक की खतरा पूरी तरह ना टल जाये । और ये दवाएं सावधानी के तौर पर इस बहादुर बच्चे को भी देनी है । नसीब वाले हो आप जो इतना होशियार बेटा मिला ।"
डॉक्टर साहब बोलते जा रहे थे और मोहन लाल की आँखों से पछतावे के आंसू निकल रहे थे ।
उधर कौशल्या ने दीनू को अपने गले लगा रखा था और रोते रोते कहे जा रही थी, "हमें माफ़ कर दे बेटा, हमने बहुत दिल दुखाया है तेरा । शायद इसी लिए भगवान ने मुझे कोई औलाद नहीं दी । लेकिन अब मुझे उसकी कोई जरुरत नहीं है । मुझे मेरा बेटा मिल गया है । सुन रहे हो ना दीनू के पापा, मुझे मेरा बेटा मिल गया है ।"
"नहीं कौशल्या, सिर्फ तुम्हें नहीं, हमें हमारा बेटा मिल गया है।" कहकर मोहनलाल ने भी दीनू को अपने गले से लगा लिया ।
पडोसी दीनू को सराहनीय नजरों से निहार रहे थे । आज मोहनलाल का परिवार पूरा हो गया था । आज दीनू को उसका परिवार मिल गया था ।
.....शिव शर्मा की कलम से....