जिस तेजी से जमाना बदल रहा है और हर कोई येन केन प्रकारेण बस एक दूसरे से आगे बढ़ने की ही हौड़ में लगा है, डर लगता है आने वाले वक्त में इस आगे बढ़ने की दौड़ में कहीं कुछ ऐसा पीछे ना छूट जाए की बाद में आदमी को एक तकलीफदेह पछतावा रहे ।
आज हर कोई एक दूसरे को शक की नजर से ही देखता है । पुरानी प्रीत ना जाने कहां खो गई । सैंकड़ों तरह के डर आदमी के मन में समाये हुए हैं । इसी को मद्देनजर रखते हुए एक ग़ज़ल लिखने का प्रयास किया है । आशा है आप की तारीफों का तोहफा जरूर मिलेगा ।
डर लगता है
हंसने हंसाने से डर लगता है,
कहीं आने जाने से डर लगता है,
भरोसा नहीं है किसी को किसी पर भी,
मतलबी इस ज़माने से डर लगता है,
डर लगता है डरावने काले अंधकार से,
जुगनुओं के जगमगाने से डर लगता है,
सुकूँ देती है बारिश की बरसती बूंदें,
बिजलियों के कड़कड़ाने से डर लगता है,
क्या पता कब कौन कैसे बुरा मान जाए,
भरी महफ़िल में मुस्कुराने से डर लगता है,
मुहब्बतों की जड़ें भी कमजोर हो गई,
प्रेम की पौध उगाने से डर लगता है,
(Image Source - https://drawception.com/game/AYjNCANSGM/thats-pretty-racist-man/) |
टूट के बिखर ना जाए रिश्तों की कड़ियां,
दिल की बात जुबां पर लाने से डर लगता है,
दबे हैं बरसों से जो राज कहीं गहरे में,
छुपाने में डर लगता है, बताने से डर लगता है,
दीमक लग गई हौसलों के महलों में,
छतों को ऊंचा उठाने से डर लगता है,
बनते बनते भी अक्सर बिगड़ ही जाते हैं,
रोज नए ख़्वाब सजाने से डर लगता है,
तेवर कुछ ज्यादा ही तीखे हैं आफ़ताब के,
परिंदों को पंख फ़ैलाने से डर लगता है,
फिजाओं में घुल गया है ज़हर नफरतों का,
बच्चों को भी खिलखिलाने से डर लगता है,
देख कर हालात इस बेदर्द दुनिया के "शिव",
खुद से नजर मिलाने से डर लगता है ।।
जय हिन्द
***शिव शर्मा की कलम से***
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धन्यवाद
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Wah
ReplyDeleteBhut khoob sir ji
ReplyDeleteBadhiya
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