आख़िर क्यूँ - Akhir Kyun
आख़िर क्यूँ मुसाफ़िर जो गुज़र जाए किसी रास्ते से,
उसके निशाँ-ए-क़दम पाये नहीं जाते ।
यादें बस जाती है हमारे मन में,
जिसे हम चाह कर भी मिटा नही पाते ॥
आख़िर क्यूँ बहूत आसान है चेहरे पर झूठी मुस्कान को सजा लेना ।
कुछ ज़ख़्म ऐसे भी होते है जो भुलाये नही जाते ॥
कुछ उम्मीद के चिरागों को आज़ भी जला के रखा है मन में ।
आख़िर क्यूँ कुछ चिराग भुजाये नहीं जाते ॥
आज दुनिया में धर्म , मज़हब , जात-पात सब पाये जाते ।
आख़िर क्यूँ यहाँ सिर्फ़ "इंसान" पाये नहीं जाते ॥
आख़िर क्यूँ जिस प्यार को पाने के लिये दिल बहूत तड़पता है,
वो इस दुनिया के लिए धोखा है ।
इस जहां में लोगों की कमी नहीं,
फ़िर भी लोग प्यार करते पाए नहीं जाते ॥
आख़िर ऐसा क्यूँ होता है जो अनजान है मुझसे,
कभी कभी शख्श वहीं हमसफ़र होता है ।
पर कैसे समझाये इस बाज़ार का दस्तूर उनको,
जो एक बार बिक गये वो दोबारा खरीदें नहीं जाते ॥
आख़िर ऐसा क्यूँ होता है जब निकलो ढूँढने
"इंसानो" को तो कदम भी साथ निभाते नहीं ।
कुछ तो रज़ा होगी उस ख़ुदा की भी यहीं,
तभी "इंसान" आजकल पाये नहीं जाते ॥
जीने की ख्वाइश अब बची नहीं,
फिर भी कफ़न क्यूँ कोई लाता नहीं ।
आख़िर क्यूँ इस मतलबी दुनिया में जिंदा लोग क्यूँ दफनाए नहीं जाते ॥
ख़ामोशी से दम तोड़ देंगे कहीं भी,
नाउम्मीद इस दिल में अब कोई ख्वाइश नहीं।
कल रात आखिरी हो ये एहसास आख़िरी हो,
अब दो पल भी और इस जहां में जिये नहीं जाते ॥
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...अर्पित जैन द्वारा रचित...
well written arpit... keep it up
ReplyDeleteThankyou So much sir...
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