फुरसत की घड़ियां - Fursat ki Ghadiya
शाम के छह बजने वाले थे । राधेश्यामजी जल्दी जल्दी अपना काम समेट रहे थे । रोकड़ मिला चुके थे । और अब घर जाने की तैयारी में थे । दूर क्षितिज पर सूर्यदेव भी अस्त होने की तैयारी में थे ।
राधेश्यामजी ने बड़े बाबू को हिसाब थमाया और उनसे राम राम करके अपने खाने के डब्बे का थैला संभाले दफ्तर से निकल गए, और कुछ दिन पूर्व ही खरीदी अपनी साईकिल के पैडल मारते ठीक पंद्रह मिनट बाद अपने मोहल्ले की सरहद में थे ।
तब तक मोहन जी भी अपने खेत से वापस आ चुके थे और अपनी गाय भैंसों को चारा खिला रहे थे ।
"राम राम मोहन", राधेश्यामजी ने साईकिल रोक कर मोहनजी को आवाज लगायी ।
"राम राम भाई राधे, कैसे हो? और साईकिल चल रही है ना ठीक से?" मोहनजी ने जवाब के साथ साथ सवाल भी पूछ लिया ।
"ठीक से क्यों नहीं चलेगी, पसंद भी तो तेरी ही थी । साठ रुपये भले ही ज्यादा लगे मगर चीज अच्छी मिल गई। अच्छा बिटिया का परीक्षा परिणाम था आज, क्या रहा?"
तभी सामने से गिरधारी लाल आते दिखे । गिरधारी जी ने राधेजी की बात का जवाब दिया । "अरे वो हमारी बिटिया है राधे, प्रथम दर्जे के अंकों से उत्तीर्ण हुयी है, पूरी कक्षा में तीसरा स्थान आया है । अपने रामेश्वर का लड़का दूसरे स्थान पर । और पता है प्रथम कौन रहा? अपने मोती की बिटिया । सच में आज तो निहाल हो गया पूरा मोहल्ला । सारे बच्चे अच्छे अंक ले के उत्तीर्ण हुए हैं ।"
तब तक रामेश्वर जी, मोतीलाल जी, घनश्याम चाचा, सुलेमान खांजी भी वहीँ आ चुके थे । सब लगभग हमउम्र थे और गहरे दोस्त भी । सभी खुश थे कि मोहल्ले के सारे बच्चे अच्छे नंबरों से पास हो गए ।
राधेश्यामजी घर से कपड़े बदल के कुछ देर बाद वापस आ गए थे । सूरज ढल चूका था । सुहानी शाम की मनमोहक लालिमा अभी भी थोड़ी थोड़ी पश्चिम के आकाश पर दिखाई दे रही थी । वे सब लोग वहीँ जम गए, और बातों में लग गए थे ।
तभी मोहनजी की पत्नी थाली में 10-12 चाय के ग्लास ले आई । सबने बेझिझक एक एक ग्लास उठाया और चाय की तारीफ करते हुए घूंट भरने लगे ।
"भाई चाय तो कई जगह पियी, पर मोहन के घर की चाय का स्वाद तो सुभान अल्ला । इसी चाय की खातिर तो मैं रोज यहां चला आता हूं।" सुलेमान खां जी बोले ।
"सही कहा सुलेमान तुमने, भई मोहन के घर की जैसी चाय तो और कहीं नहीं पी।" मोतीजी ने उनका साथ दिया ।
"अरे तो कंजूसों, आधा लीटर तो दूध लेते हो तुम लोग, उसमे से ही चाय भी बनवाते हो, बच्चों को भी पिलाते हो, फिर लंबे पानी की चाय तो वैसी ही बनेगी ना।" मोहनजी ने हँसते हुए ठिठोली की । "यहां चाय कोरे दूध की बनती है, अदरक राधेश्याम ले आता है, अब कोरे दूध की अदरक वाली चाय स्वादिष्ट तो होगी ही ।" मोहनजी हास्य के साथ ताना मारते फिर कहते, "ठिठोली कर रहा हूँ यारों, दरअसल ये स्वाद चाय में नहीं, इस बात में है की हम सब साथ बैठकर चाय पी रहे हैं।"
इसी तरह की हाळी फुल्की, हंसी मजाक और एक दूसरे के सुख दुःख की बातें करते करते कब नौ बज जाती थी पता ही नहीं चल पाता था । बाद में सब अगले दिन फिर मिलने के लिए एक दूजे से विदा लेकर अपने अपने घर चले जाया करते । ये उन सबका रोज का नियम सा था ।
उपरोक्त दृश्य आज से सिर्फ 20-25 वर्षों पहले का है । उस वक्त किसी के घर में कोई शादी या अन्य बड़ा कार्यक्रम होता था तो पुरे मोहल्ले के लोग उस काम को अपना समझ कर इस तरह करते थे कि जिसके घर में शादी है उसे खबर भी नहीं लगती और काम हो जाया करता था ।
बड़े तो बड़े, नौजवान भी पूरी तन्मयता से सहायता को तत्पर रहा करते थे । बाजार से सामान लाना, हलवाई की जरूरतें, मेहमानो की देखभाल, किसी रिश्तेदार को आसपास के गांव से ले के आना आदि सारे काम आपस में बंट जाया करते थे की कौन कौन क्या क्या करेगा ।
पंगत में बैठकर खाना खाने का रिवाज था, मगर 200-300 व्यक्तियों को खाना परोसने की जिम्मेदारी मोहल्ले की किशोर और युवाओं के कन्धों पर होती थी और वे बखूबी उसे निभाते थे । सब काम शांति से फुरसत के साथ हुआ करते थे । कोई आपा धापी नहीं । समय सारणी तय हो जाती और उसी क्रम में काम भी ।
लेकिन आज कहां किसी के पास इतनी फुरसत है कि दोस्तों के साथ बैठे । आपसी हालचाल जानें । दोस्त तो दूर की बात है, बहुत से लोगों के पास तो अपने परिवार के साथ बैठने की फुरसत नहीं है । बच्चे कब बड़े हो जाते हैं उन्हें कुछ खबर भी नहीं लगती । आधी रात को काम से आते हैं, तब तक बच्चे सो जाते हैं । सुबह जब तक उठते हैं तब तक बेटा बेटी स्कूल कॉलेज जा चुके होते हैं । छुट्टी के दिन वो अपने अधूरे कामों को पूरा करने में लग जाते है। समय बच जाए तो वो समय सोशल मिडिया खा जाता है ।
घर में कोई उत्सव का काम हो तो केटरिंग सर्विस वाले बुला लिए जाते है । न्योते फ़ोन पर या व्हाट्सएप्प पर लग जाते हैं । यहाँ तक कि दुर्भाग्यवश कोई बीमार भी हो जाए तो उसका हालचाल भी फ़ोन से ही पता कर लिया जाता है।
कड़वा है पर सच है कि जरूरतों ने आदमी को कितना अकेला कर दिया । ये गणित नहीं समझ में आती कि आदमी की जरूरतें बढ़ी है या आदमी ने जरूरतों को बढ़ा लिया है । आधुनिकता की अंधी दौड़ में हम कहाँ से कहाँ आ गए ये एक विचारणीय प्रश्न है जिसका जवाब शायद किसी के पास नहीं है ।
मित्रों आप मगर मेरे लिए थोड़ी फुरसत निकाल के इसे पढ़ना जरूर और अपनी राय अवश्य देना ।
अंत में ज़नाब निदा फ़ाज़ली के एक शेर के साथ आपसे आज के लिए विदा लेता हूँ ।
मैं नहीं समझ पाया आज तक इस उलझन को
खून में हरारत थी, या तेरी मोहब्बत थी
क़ैस हो कि लैला हो, हीर हो कि राँझा हो
बात सिर्फ़ इतनी है, आदमी को फुरसत थी
...शिव शर्मा की कलम से...
Lajawab style sharmaji. Man Khush hogaya hai.
ReplyDeleteखुद भी खुश रहो । औरों को भी खुशियां बांटो । शुभ दीपावली
ReplyDeleteवाह, क्या कमाल का विचार अभिव्यक्तिकरण है।धन्यवाद।
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